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'षडशीतिक'
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प्रस्तुत ग्रंथ बनाने का तात्पर्य यह है कि सांसारिक जीवों की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन करके यह बतलाया जाए कि अमुक-अमुक अवस्थाएँ औपाधिक, वैभाविक किंवा कर्म-कृत होने से अस्थायी तथा हेय हैं; और अमुकमुवस्था स्वाभाविक होने के कारण स्थायी तथा उपादेय है । इसके सिवा यह भी बतलाना है कि, जीव का स्वभाव प्रायः विकास करने का है । श्रतएव वह अपने स्वभाव के अनुसार किस प्रकार विकास करता है और तद्द्वारा श्रपाfue वस्थाओं को त्याग कर किस प्रकार स्वाभाविक शक्तियों का आविर्भाव करता है ।
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए प्रस्तुत ग्रंथ में मुख्यतया पाँच विषय वर्णन किये हैं
(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, (३) गुणस्थान, (४) भाव और(५) संख्या ।
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इनमें से प्रथम मुख्य तीन विषयों के साथ अन्य विषय भी वर्णित हैंस्थान में (१) गुणस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा और (८) सत्ता ये आठ विषय वर्णित हैं । मार्गणा स्थान में (१) जीवस्थान, (२) गुणस्थान, (३) योग, (४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्पबहुत्व, ये छः विषय वर्णित हैं तथा गुणस्थान में ( १ ) जीवस्थान. (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध-हेतु, (६) बन्ध, (७) उदय (८) उदीरणा, (६) सत्ता और (१०) अल्प- बहुत्व, ये दस विषय वर्णित हैं । पिछले दो विषयों का अर्थात् भाव और संख्या का वर्णन अन्य अन्य विषय के वर्णन से मिश्रित नहीं है, अर्थात् उन्हें लेकर अन्य कोई विषय वर्णन नहीं किया है ।
इस तरह देखा जाए तो प्रस्तुत ग्रंथ के शब्दात्मक कलेवर के मुख्य पाँच हिस्से हो जाते हैं ।
पहिला हिस्सा दूसरी गाथा से आठवीं गाथा तक का है, जिसमें जीवस्थान का मुख्य वर्णन कर के उसके संबन्धी उक्त आठ विषयों का वर्णन किया गया है । दूसरा हिस्सा नवीं गाथा से लेकर चौवालिसवीं गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया मार्गणास्थान को लेकर उसके संबंध से छः विषयों का वर्णन किया: गया है । तीसरा हिस्सा पैंतालीसवीं गाथा से लेकर त्रेसठवीं गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया गुणस्थान को लेकर उसके आश्रय से उक्त दस विषयों का वर्णन किया गया है। चौथा हिस्सा चौंसठवीं गाथा से लेकर सन्तरवीं गाथा तक: का है, जिसमें केवल भावों का वर्णन है । पाँचवाँ हिस्सा इकहत्तरवी गाथा से
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