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________________ पूर्वसेवा आदि २६३ 'अध्यात्म'' है । ३. अध्यात्म का बुद्धिसंगत अधिकाधिक अभ्यास ही 'भावना'२ है । ४. अन्य विषय के संचार से रहित जो किसी एक विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्मबोध हो, वह 'ध्यान' ३ है। ५ अविद्या से कल्पित जो अनिष्ट वस्तुएँ हैं, उनमें विवेकपूर्वक तत्त्व-बुद्धि करना अर्थात् इष्टत्व अनिष्टत्व की भावना छोड़कर उपेक्षा धारण करना 'समता' ४ है । ६. मन और शरीर के संयोग से उत्पन्न होनेवाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृतियों का निर्मूल नाश करना 'वृतिसंक्षय' ५ है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने अपनी पातञ्जलसत्रवृत्ति में वृत्तिसंक्षय शब्द की उक्त व्याख्या की अपेक्षा अधिक विस्तृत व्याख्या की है। उसमें वृत्ति का अर्थात् कर्मसंयोग की योग्यता का संक्षय----ह्रास, जो ग्रन्थिमेद से शुरू होकर चौदहवें गणस्थान में समाप्त होता है, उसी को वृत्तिसंक्षय कहा है और शक्लध्यान के पहले दो भेदों में सम्प्रज्ञात का तथा अन्तिम दो भेदों में असम्प्रज्ञात का समावेश किया है। १. 'औचित्याद्व्तयुक्तस्य, वचनात्तत्त्वचिन्तनम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्म तद्विदो विदुः ॥२॥ -योगभेदद्वात्रिंशिका। २. 'अभ्यासो वृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः। निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृद्धिश्च तत्फलम् ।।६।' -योगभेदद्वात्रिंशिका । ३. 'उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥११॥ -योगभेदद्वात्रिंशिका। ४. 'व्यवहारकुदृष्टयोच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । कल्पितेषु विवेकेन, तत्वधीः समतोच्यते ॥२२॥ -योगभेदद्वात्रिंशिका । ५. 'विकल्यस्पन्दरूपाणां वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । अपुनर्भावतो रोधः, प्रोच्यते यत्तिसंक्षयः ॥२५॥' —योगभेदद्वात्रिंशिका। ६ 'द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चमभेदेऽवतरति' इत्यादि । -पाद १, सू० १८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229068
Book TitleShadashitika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size747 KB
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