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________________ २७२ जैन धर्म और दर्शन जड़ भावों के सर्वथा परिहार से कितना शान्ति-लाभ होगा ? इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त श्राध्यात्मिक शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह . विकासगामी आत्मा चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूप - स्थिरता व स्वरूप- लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करता है । इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व विरति संयम प्राप्त होता है । जिसमें पौद्गलिक भावों पर मूर्च्छा बिलकुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है । यह 'सर्वविरति' नामक षष्ठ गुणस्थान है । इसमें श्रात्म-कल्याण के अतिरिक्त लोक कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है । जिससे कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद जाता है । 1 पाँच गुणस्थान की अपेक्षा, इस छठे गुणस्थान में स्वरूप अभिव्यक्ति . अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति के अनुभव में जो बाधा पहुँचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता । अतएव सर्व-विरति - जनित शान्ति के साथ श्रप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करता है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन-चिन्तन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है । यही 'अप्रमत्त संयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है । इसमें एक ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुख का अनुभव श्रात्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी श्रात्मा कमी प्रमाद की तन्द्रा और कभी अप्रमाद की जागृति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार जाता श्राता रहता है । भँवर या वातभ्रमी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इधर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठें और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है । I प्रमाद के साथ होने वाले इस श्रान्तरिक्त युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि पना चारित्र बल विशेष प्रकाशित करता है तो फिर वह प्रमाद - प्रलोभनों को पार कर विशेष प्रमन्त अवस्था प्राप्त कर लेता है । इस अवस्था को पाकर वह ऐसी शक्ति वृद्धि की तैयारी करता है कि जिससे शेष रहे-सहे मोह-बल को नष्ट किया जा सके | मोह के साथ होने वाले भावी युद्ध के लिए की जाने वाली तैयारी की इस भूमिका को आठवाँ गुणस्थान कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229068
Book TitleShadashitika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size747 KB
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