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: जैन धर्म और दर्शन - सद्बोध, सवीर्य व सच्चरित्र के तर-तम-भाव की अपेक्षा से सदृष्टि के ' भो, शास्त्र में चार विभाग किये हैं, जिनमें मिथ्यादृष्टि त्यागकर अथवा मोह की एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे बढ़े हुए सभी विकसित आत्माओं का समावेश होजाता है । अथवा दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिए मुख्य प्रवृत्ति हो, वह सदृष्टि । इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् भासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिए ही प्रवृत्ति हो, वह असद्दृष्टि । बोध, वीर्य व चरित्र के तर-तममाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चार-चार विभाग किये गएं है, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पढ़ने से आध्यात्मिक विकास का चित्र आँखों के सामने नाचने लगता है।
शारीरिक और मानसिक दुःखों की संवेदना के कारण अज्ञातरूप में ही गिरीनदो-पाषण 3 न्याय से जब आत्मा का आवरण कुछ शिथिल होता है और इसके कारण उसके अनुभव तथा वीर्योल्लास की मात्रा कुछ बढ़ती है, तब उस विकासगामी आत्मा के परिणामों की शुद्धि व कोमलता कुछ बढ़ती है। जिसकी बदौलत
१-सच्छ्रद्धासंगतो बोधो दृष्टिः सा चाष्टधोदिता ।
मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा ॥२५॥ तृणगोमयकाष्ठाग्निकरणदीपप्रभोपमा । रत्नताराचंद्राभा क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा ॥२६॥ श्राद्याश्चतस्रः सापायपाता मिथ्यादृशामिह । तत्त्वतो निरपायाश्च भिन्नग्रंथेस्तथोत्तराः ॥२८॥
-योगावतारद्वात्रिंशिका | २ इसके लिए देखिए, श्रीहरिभद्रासूरि-कृत योगदृष्टिसमुच्चय तथा उपाध्याय यशोविजयजी-कृत २१ से २४ तक की चार द्वात्रिंशिकाएँ । ३ यथाप्रवृत्तकरणं नन्वनाभोगरूपकम् ।
भवत्यनाभोगतश्च कथं । कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥६७॥ यथा मिथो घर्षणेन ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः । त्युश्चित्राकृतयो ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः ॥६०८।। तथा यथाप्रवृत्तात्स्युरप्यनामोगलक्षणात् । लघुस्थितिककर्माणो . जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ६०६।।
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ ।
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