Book Title: Shadashitika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ गुणस्थान का विशेष स्वरूप २६१ वह रागद्वेष की तीव्रतम -- दुर्भेद ग्रंथि को तोड़ने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेता है । इस अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदना-जनित अति अल्प आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में 'यथाप्रवृत्तिकरण, " कहा है। इसके बाद जब कुछ और भी अधिक श्रात्म-शुद्धि तथा वीर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब रागद्वेष की उस दुर्भेद ग्रंथि का भेदन किया जाता है । इस ग्रंथिभेदकारक आत्म शुद्धि को 'अपूर्वकरण‍ कहते हैं। क्योंकि ऐसा करण – परिणाम 3 विकासगामी आत्मा के लिए अपूर्वप्रथम ही प्राप्त है । इसके बाद श्रात्म शुद्धि व वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति --दर्शन मोह पर अवश्य विजयलाभ करता है । इस विजयकारक श्रात्म शुद्धि को जैनशास्त्र में 'अनिवृत्तिकरण' ४ कहा है, क्योंकि उस श्रात्म-शुद्धि के हो जाने पर श्रात्मा दर्शनमोह पर जयलाभ बिना किये नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता । उक्त तीन प्रकार की आत्म १ इसको दिगम्बरसम्प्रदाय में 'अथाप्रवृत्तकरण कहते हैं। इसके लिए देखिए, तवार्थ राजवार्तिक ६.१.१३. २ तीव्रधारपशुकल्पापूर्वी ख्यकरणेन हि । आविष्कृत्य परं वीर्यं ग्रन्थिं भिन्दन्ति केचन ॥६१८ || ३ परिणामविशेषोऽत्र करणं प्राणिनां मतम् ॥५६६ ॥ - लोकप्रकाश, सर्ग ३ | --लोकप्रकाश, सर्ग ३ | ४ "थानिवृत्तिकरणेनातिस्वच्छाशयात्मना । करोत्यन्तरकरणमन्तर्मुहूर्त्तसंमितम् ||६२७॥ कृते च तस्मिन्मिथ्यात्वमोह स्थितिर्द्विधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणादधस्तन्यपरोर्ध्वमा ||६२८|| तत्राद्यायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्द लवेदनात् । श्रतीतायामथैतस्यां स्थितावन्तर्मुहूर्त्ततः ॥६२६॥ प्राप्नोत्यन्तरकरणं तस्याग्रक्षण एव सः । सम्यक्त्वमौपशमिकमपौद्गलिक मान्नुयात् ॥६३०॥ यथा वदवो दग्धेन्धनः प्राप्यातृणं स्थलम् | स्वयं विध्यायति तथा, मिथ्यात्वोग्रदवानलः ||६३१|| अवाप्यान्तरकरणं क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदौपशमिकं नाम सम्यक्त्वं लभतेऽसुमान् ॥ ६३२|| Jain Education International ---- लोकप्रकाश, सर्ग ३ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40