Book Title: Shadashitika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 14
________________ . जैन धर्म और दर्शन शुद्धियों में दूसरी अर्थात् अपूर्वकरण-नामक शुद्धि ही अत्यन्य दुर्लभ है । क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को रोकने का अत्यंत कठिन कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, जो सहज नहीं है । एक बार इस कार्य में सफलता प्राप्त हो जाने पर फिर चाहे विकासगामी श्रात्मा ऊपर की किसी भमिका से गिर भी पड़े तथापि वह पुनः कभी-न-कभी अपने लक्ष्यको-आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । इस आध्यात्मिक परिस्थिति का कुछ स्पष्टीकरण अनुभवगत व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा किया जा सकता है। जैसे; एक ऐसा वस्त्र हो, जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी लगी हो । उसका मल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना कठिन और श्रम-साध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट का दूर करना। यदि चिकनाहट एक बार दूर हो जाए तो फिर बाकी का मल निकालने में किंवा किसी कारणवश फिर से लगे हुए गर्द को दूर करने में विशेष श्रम नहीं पड़ता और वस्त्रको उसके असली स्वरूप में सहज ही लाया जा सकता है। ऊपर-ऊपर का मल दूर करने में जो बल दरकार है, उसके सदृश 'यथाप्रवृत्तिकरण' है। चिकनाहट दूर करनेवाले विशेष बल व श्रम-के समान 'अपूर्वकरण' है, जो चिकनाहट के समान राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रंथि को शिथिल करता है। बाकी बचे हुए मल को किंवा चिकनाहट दूर होने के बाद फिर से लगे हुए मल को कम करनेवाले बल-प्रयोग के समान 'अनिवृत्तिकरण' है। उक्त तीनों प्रकार के बल प्रयोगों में चिकनाहट दूर करनेवाला बल प्रयोग ही विशिष्ट है। अथवा जैसे; किसी राजा ने आत्मरक्षा के लिए अपने अङ्गरक्षकों को तीन विभागों में विभाजित कर रखा हो, जिनमें दूसरा विभाग शेष दो विभागों से अधिक बलवान् हो, तब उसी को जीतने में विशेष बल लगाना पड़ता है। वैसे हो दर्शनमोह को जीतने के पहले उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र संस्कारोंको शिथिल करने के लिए विकासगामी आत्मा को तीन बार बल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जानेवाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा राग-द्वेष की अत्यंत तीव्रतारूप ग्रंथि भेदी जाती है, प्रधान होता है। जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से बलवान् दूसरे अङ्गरक्षक दल के जीत लिए जाने पर फिर उस राजा का पराजय सहज होता है, इसी प्रकार राग-द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शन-मोह पर जयलाभ करना सहज है। दर्शनमोह को जीता और पहले गुणस्थान की समाप्ति हुई। ऐसा होते ही विकासगामी अात्मा स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् उसकी अब तक जो पररूप में स्वरूप की भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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