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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
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तीन प्रवासी कहीं जा रहे थे। बीच में भयानक चोरों को देखते ही तीम में से एक तो पीछे भाग गया। दूसरा उन चोरों से डर कर नहीं भागा, किन्तु उनके द्वारा पकड़ा गया। तीसरा तो असाधारण बल तथा कौशल से उन चोरों को इराकर आगे बढ़ ही गया। मानसिक विकारों के साथ श्राध्यात्मिक युद्ध करने में जो जय-पराजय होता है, उसका थोड़ा बहुत खयाल उक्त दृष्टान्त से श्र सकता है।
प्रथम गुणस्थान में रहने वाले विकासगामी ऐसे अनेक आत्मा होते हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा सा दबाये हुए होते हैं, पर मोह की प्रधान शक्ति को अर्थात् दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होते। इसलिए वे यद्यपि श्रध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होते, तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य विकसित श्रात्मानों की अपेक्षा अच्छा ही होता है । यद्यपि ऐसे आत्माओं की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा श्रात्मोन्मुख न होने के कारण वस्तुतः मिथ्या दृष्टि, विपरीत दृष्टि या असत् दृष्टि ही कहलाती है तथापि वह सदूदृष्टि के समीप ले जानेवाली होने के कारण उपादेय मानी गई है " ।
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बोध, वीर्य व चारित्र के तर-तम भाव की अपेक्षा से उस सत् दृष्टि के चार भेद करके मिथ्या दृष्टि गुणस्थान को अन्तिम अवस्था का शास्त्र में अच्छा चित्र खींचा गया है। इन चार दृष्टियों में जो वर्तमान होते हैं, उनको सद्द्दष्टि लाभ करने में फिर देरी नहीं लगती ।
दृष्टान्तोपनयश्चात्र, जना जीवा भवोऽटवी ।
पन्थाः कर्मस्थितिर्ग्रन्थि देशस्तित्वह भयास्पदम् । ६२२ ।। रागद्वेषौ तस्करौ द्वौ तद्भीतो वलितस्तु सः । ग्रंथि प्राप्यापि दुर्भावाद्यो ज्येष्ठस्थितिबन्धकः || ६२३ ॥ चौररुद्धस्तु स ज्ञ ेयस्तादृग् रागादिबाधितः । ग्रंथि भिनन्ति यो नैव न चापि वलते ततः ॥ ६२४ ॥ सत्वभीष्टपुरं प्राप्तो योsपूर्वकरणाद् द्रुतम् । रागद्वेषावपाकृत्य सम्यग्दर्शनमातवान् ।। ६२५ ॥ - लोकप्रकाश सर्ग ३ |
१ 'मिथ्यात्वे मन्दतां प्राप्ते, मित्राद्या श्रपि दृष्टयः । मार्गाभिमुखभावेन, कुर्वते मोक्षयोजनम् ॥ ३१ ॥
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- श्री यशोविजयजी - कृत योगावतारद्वात्रिंशिका
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