Book Title: Satyartha Chandrodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Author(s): Parvati Sati
Publisher: Lalameharchandra Lakshmandas Shravak
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( १५० ) शिष्य जिनदत्त सूरिकृत संदेहदोलावली प्रकरण में गाथा षष्टी सप्तमी :
गडरि पव्वाहर्ड जेएंइ,नयरं दीसए बहुजणेहिं, जिणगिहकारवणाइ,सुत्तविरुद्धो अशुद्धोअ॥६॥ ___ अस्यार्थः-भेड चालमें पड़ेहुये लोग नगरोंमें देखने में आते हैं कि (जिनगिह ) मंदिर का वनवाना आदि शब्द से फल फूल आदिक से पूजा करनी यह सब सूत्र से बिरुद्ध है अर्थात् जिनमत के नियमों से वाहर है और ज्ञानवानों के मत में अशुद्ध है ॥६॥
सोहोइदव्वधम्मो, अपहाणो अनिव्वुई जणड,सुद्धो धम्मो बीर्ड,महि उपडि सो अगामी हिं॥७॥अर्थ-द्रव्य धर्म अर्थात् पूर्वोक्त द्रव्यपूजा सोप्रधान नहीं कस्मात्कारणात् किसलिये कि)