Book Title: Satyartha Chandrodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Author(s): Parvati Sati
Publisher: Lalameharchandra Lakshmandas Shravak
View full book text
________________
( १५५ ) स्वरूप तो कुछतो में ज्ञानदीपिका में लिखचुकी हूँ और सम्यक्त्वशल्योद्धार और गप्पदीपिका को तुमही वांचके देखलो कि कैसी हैं और कैसे अर्थक अनर्थ हेतुके कुहेतु झूठऔर निंदा
औरगालिये अर्थात् ढूंढियोंको किसी को दुर्गति पड़नेवाले,किसीको ढेढ चमार मोची मुसलमान इत्यादि वचनों से पुकारा है,हाथ कंगन को आरसी क्या। हांजो स्वपक्षीहैं वह तो फूलते हैं कि आहा देखो केसी पण्डिताई किहै परन्तु जो निर्पक्षी सुज्ञजन हैं वह तो साफ कहतेहैंकि यह काम साधुओंके नहीं असाधुओं के हैं और जो प्रश्नोंके उत्तर दिये हैं और जो देते हैं सो ऐसे हैकि पूर्वकी पूछो तो पश्चिमको दौड़ना कुपत्ती रन्न (लुगाई ) की तरह वातको उलटी करके लड़ना । यथा किसीने प्रश्न किया कि तुम्हारे