Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 18
________________ होता है। यह हम अनुभव करते हैं कि जब कोषावि भाग होते. हैं तब अशांति तथा दुःख होता है, और जब ये नहीं होते हैंतब शांति तथा सुख होता है। एक पादमी बहुत देर कोष नहीं कर सकता क्योंकि यह अपना स्वभाव नहीं है परन्तु शांत भाव में बहुत काल रह सकता है क्योंकि शांति हमारे आत्मा का स्वमार है। क्रोधादिभाव किसी दूसरे निमित्त से होते हैं जिसका वर्णन आगे किया जायगा । जैसे जल उसी समय तक गर्म रहेगा जब तक गर्मी का सम्बन्ध है जो अग्नि के निमित से पैदा हुई है। परन्तु शीतलता उसमें सदा ही पाई जा सकती है-इसीलिये. शीतलता जल का स्वभाव है । इसी तरह आत्मा का स्वभाव सुख शांतिमय है-जो आत्मा में तिष्ठेगा वह सुख शांति का अनुभव करेगा। ___ जब श्रामिक सुख शांति का मजा आने लगता है तब उसके मुकाबले में संसारिक सुख तुच्छ दिखलाई पड़ता है । बस, यही कारण इच्छाओं के घटाव का है। एक प्रात्म-ध्यानी गृहस्थ के दिलों में आवश्यक कार्य सम्बन्धी इच्छाएं बाकी रह जाती हैं । वे जरूरी बहुत सी इच्छाएं मिट जाती हैं-ऐसा तत्व-शानी इच्छाओं का दास नहीं रहता हैं यदि इच्छाएं पूर्ण नहीं होती हैं तो अधिक चिन्ता नहीं करता है। आत्म-ध्यान के अभ्यास से जितना जितना आत्मानन्द का लाभ मिलता जाता है उतना उतना उसका वेग विषय सुखों की तरफ घटता जाता है। बस ! सुख शांति के पाने का और इच्छाओं के वेगों के रोकने का एक मात्र उपाय आत्मा का ध्यान है इस ही को जैनमत ने धर्म कहा है व मुक्ति का मार्ग

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