Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 41
________________ (६) अपने आत्मा को सल मार्ग से डिगते हुए गांभेक, दूसरों को भी रद करने का उद्योग करवा रहे। . (७) स धर्म के मानने वालों के साथ गौ वच्छ के समान प्रेम रक्खे उनके संकटों को अपना संकट समझ कर उनको दूर करे। (८) जैन धर्म के तत्त्वों को जगत में विस्तार करके धर्म की प्रभावना या उन्नति करे ; अजैनों का जैनी बनाये; जो जीव सात तत्वों को नहीं जानते व सच्चे आत्म स्वरूप व आत्मानन्द को नहीं पहचानते हैं वे मानव जन्म पा करके उससे कुछ लाभ नहीं ले रहे हैं ऐसा दिल में दया भाव लाकर जगत भर के मानवों को पुखकों के और उपदेशों के द्वारा तथा अपने आचरण के द्वारा धर्म का स्वरूप बताकर उनके दिलों में सच्चा तत्त्व जमा कर उनको सच्चे जैन मार्ग पर प्रारूढ़ करना व उनसे आठ मूल गृहण कराना बड़ा भारी धर्म का अंग है । हर एक जैनी का कर्तव्य है कि यह एक वर्ष में कम से कम १२ अजैनों को अवश्य जैनी बनावे उनकी आत्मा को पवित्र करे । हमारे जैनाचार्यों ने चंडाल व भील आदि को धर्मोपदेश देकर जैनी बनाकर उनको दुर्गति से बचा कर स्वर्ग में भिजवा दिया था । सब आत्माओं को समान समझ कर सब के साथ उपकार करना यह एक जैनी का मुख्य कर्तव्य है। (२) दूसरी श्रेणी व्रत प्रतिमा निरति क्रमण मणुव्रत पंचकमपि शीलसप्तकंचापि।

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