Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 59
________________ संभवात् तथा जातीय कानां दीक्षार्हस्के प्रतिषेधाभावात १९शा ....भावार्थ-म्लेच्छ भूमि में पैदा होने वाले मनुष्यों को मुनि का संयम कैसे होगा यह शंका न करनी उचित है। जब चक्रवर्ती दिग्विजय करने आते हैं तब उनके साथ जो म्लेच्छ खंड के राजा लोग पाते हैं उनके साथ चक्रवर्ती आदि का विवाह संबन्ध हो जाता है, उनको संयम लेने का विरोध नहीं है। अथवा उनकी कन्याओं को नो पक्रवर्ती व अन्य विवाह लाते हैं उनके गर्भ से पैदा हुए अयपि माता के पन से म्लेच्छ हैं समापि संयम के अधिकारी हैं। ऐसे उत्पन्न होने वालों को दीक्षा के योग माना है, निषेध नहीं है। . जैन लोगों को चाहिये कि उन आज्ञाओं को हितकारी मानकर देश परदेश में उपदेश का प्रचार करके लाखों व करोड़ों को जैनी बनाकर उनको दया धमी बना डालें, उनसे अन्याय व अभक्ष्य का त्याग करावें जिससे सर्व प्रजा सुखी हों। - विवाह कन्या या पुत्र का कछ करना व उसमें क्या क्या रस्म करना यह सब लौकिक व्यवहार है। जिसमें वर वधु की तन्दुरुस्ती अच्छी रहे व उनमें योग्य वीर पुत्र पुत्री को विवाहते ही उत्पन्न करने की पात्रता हो तब उनका सम्बन्ध करत उचित है / वाग्भट्ट के अनुसार कन्या की आयु 16 वर्ष की और व वर की आयु 20 वर्ष होनी उचित है। गृहस्थों का कर्तव्य है कि पहले पुत्र पुत्री को धार्मिक व लौकिक विद्या से भाषित करें फिर युवावय में उनकी लग्न करें। प्रौढ़ कन्या प्रौढ़ कुमार को ही विवाही जावे जिसमें सन्तान की वृद्धि हो :

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