Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
सनातन जैनमत
लेखक
जैन धर्मभूषण धर्मदिवाकर ० शीतलप्रसाद जी
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर सेवा मन्दिर दिल्ली
क्रम संख्या
काल नं ०
खण्ड
9202
2007 मौत 1
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
---
10 NO
SH
13
CARDA
A
लाला न्यादरमल जी जैन सर्राफ, मालिक फर्म केवरसैन न्यादरमल
जैनी सर्राफ, बड़ा दरीबा, देहली। Krisbna l'rcs, Allahabad.
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
के बन्देजिनवरम् 2
सनातन जैनमत
जिसको
श्री महावीर जन्मोत्सव देहली के
लिए तैयार किया गया
लेखक
जैन धर्मभूषण धर्मदिवाकर पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी
आनरेरी सम्पादक जैन मित्र व वीर
प्रकाशक
प्रेमचंद जैन देहलवी श्री महावीर जयन्ती वीर निर्वाण सम्वत् २४५३
प्रथमवार १००० } अप्रैल सन् १९२७ ई मूल्य चार आने
प्रथमवार
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
धन्यवाद
निम्न-लिखित सज्जनों की आर्थिक सहायता से प्रस्तुत पुस्तक का यह संस्करण छपवा कर प्रकाशित किया गया है। मैं आशा करता हूँ कि अन्य सज्जन भी ऐसे ऐसे उपयोगी ट्रैक्टों को छपवा कर प्रकाशित कराने में हाथ बटावेगें।
श्रीमान् लाला न्यादरमल जी जैन सर्राफ मालिक फर्म कँवरसैन न्यादरमल जैनी सर्राफ बड़ा दरीबा देहली १०) श्रीमान लाला जुगलकिशोर जैन बहादरगढ़ १०)
निवेदक :
प्रेमचन्द जैन
पुस्तक मिलने का पता :हीरालाल पन्नालाल, जैन-थुकसेलर,
दरीबाकलां, देहली।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूमिका
यह पुस्तक इसीलिये लिखी गई है कि जैन अजैन प्राचीन जैनमत का कुछ सार पाकर उसके अधिक जानने की कोशिश करें। इस छोटी सी पुस्तक में जो कुछ बताया गया है यदि उस पर अमल किया जायगा तो यह देखा जायगा कि तुर्त लाभ मिल रहा है । यह मानव जीवन सुख शांति मय हो रहा है । इस पुस्तक में प्रमाणीक आचार्यों के बचनों का हवाला दिया गया है जो नीचे भांति हैंश्री कुन्दकुदाचार्य
प्रसिद्ध विक्रम सम्वत् ४९ श्री उमास्वामी श्री समन्त भद्र
" , १२५ श्री पूज्य पाद
" , ४०१ श्री जिनसेनाचार्य
" , ८९४ श्री गुण भद्राचार्य
" , ९५५ श्री अमृत चंद्र
"
, ९६२ श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
,१०४० श्री योगीन्द्र चन्द्र
प्राचीन समय अप्रगट पाठकों को उचित है कि इनके रचे हुए प्रन्थों को पढ़ें और धर्म का आनन्द भोगें।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २ ] अब सर्व जैनों को मिलकर सनातन जैनमत की रीति से चलना चाहिये व इसका प्रचार करके करोड़ों मानवों को जैन धर्म का लाम देना चाहिये । परोपकारियों को चाहिये कि उदार बने और धर्म की छाया में अनेकों को बिठाकर अपने समान करके परम पुण्य कमायें । जो सच्ची प्रभावना करते हैं वे जैनमत प्रचार करते हैं और वे ही तीर्थकरों के सच्चे भक्त हैं।
"अजिताश्रम", लखनऊ वीर सं० २४५३ माहवदी ८
ताः २६-१-२७
३० शीतलप्रसाद
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
* धन्देजिनधरम् के
सनातन जैनमत
ऋषभ आदि महावीर लो, चौबीसों जिनराय । हुए भरत इस काल में, वन्दो मन बचकाय ॥ ___ जैनमत एक बहुत प्राचीन मत है । जिस समय यहां ऋग्वेदादि में कथित सूर्य, अमि, इन्द्र की पूजा के मानने वाले आर्य लोग नहीं
आए थे उस समय इस भरत क्षेत्र में यह जैनमत फैला हुआ था। तथा इसका प्रभाव दुनियां के दूसरे धर्मों पर भी अच्छी तरह पड़ा था । हमें इस पुस्तक में प्राचीनता के प्रमाण देकर नए पुराने का सवाल नहीं छेड़ना है ; हमें तो यह बताना है कि सनातन जैनमत कैसा सुगम, वैज्ञानिक (scientific) और आत्मा की हर तरह की उन्नति करने वाला है तथा यह बहुत उदार है। इसको हर एक मन वाला समझदार प्राणी समझ सकता है व पाल सकता है-चाहे जिस देश का हो व चाहे जिस वंश का हो । प्राचीनता के सम्बन्ध में पाठकगण हमारी लिखित "जिनेन्द्रमत दर्पण" प्रथम माग व “जैन धर्म प्रकाश" पढ़ जावें
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
यहां हम मात्र Major General J. G. R. Forlong, F.R.S E., F.R.A S. मेजर जेनरल फाग साहब की सम्मति प्रगट करते हैं जो उन्होंने " In his Short Studies in the Comparative Religion '' अपनी पुस्तक "धर्म" में दी है
“Long before Aryans reached the Ganges or even Sarasvati, Jains had been taught by some twenty two prominent Bodhas or Saints or Tirthankaras prior to the historic twenty-third Bodha, Parsva of the 8th or 9th century B. C., All upper, Western, North and Central India was then say from 1500--800 B.C. and indeed from unknown times-ruled by Turanians, conveniently called Dravids...............but there also then existed throughout Upper India an ancient highly organised 'religion, philosophical, ethical, and severely inscetical,' viz. Jainism, out of which clearly developed the carly ascetical features of Brahmanism and Budhism."
भावार्थ-आर्य लोगों को गंगा या सरस्वती नदी के पास पहुँचने के बहुत पहले जैन लोगों को बाईस तीर्थंकरों ने उपदेश दिया था जो ऐतिहासिक तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ से पहले हो गए थे यह पार्श्वनाथ सन् ई० से ८वीं व ९वीं शताब्दी पहले हुए थे। ... सब उपरी, पश्चिमीय, उत्तरीय, व मध्य भारत में तब सन् ई० से १९०० से ८०० वर्ष पहले या वास्तव में अनजान समय से तूरानी लोग या द्राविड़ लोग राज्य करते थे। तब इस ऊपरी भारत में एक "प्राचीन और उप संगठित धर्म मौजूद था जो तत्वज्ञान पूर्ण, चारित्र
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस अज्ञानी प्राणी को इस उपाय से न स्थिर शांति मिलती है और न स्थिर संतोष होता है क्यापि भीतरी भावना हर एक प्राणी की यही है । कोई बकना व लड़ना नहीं चाहता परन्तु कोध के आवेश में बकता है, लड़ता है, महा दुःखी होता है पीछे जब कोध ठण्ढा होता है तब अपनी उस क्रोध की दशा को बुरा समझने लगता है।
और मन में ऐसा सोचने लगता है कि कोध करना बहुत बुरा है यदि न करता तो ठीक था-इस सोचने का कारण यही है कि उसको कोध के समय बड़ी अशांति का सामना करना पड़ा था । इसी तरह एक आदमी भारी लोभ में फंसकर किसी का माल उठा ले जाता है और वह उठाता भी इसीलिये है कि इससे उसको संतोष श्रावे अर्थात् वह अपनी आशा का गड्ढा भरे परन्तु जब वह पकड़ा जाता है और दंड पाता है तब सिवाय उस प्राणी के जिसका मन लगातार चोरी करने से व दंड पाने से विवेक शून्य, व ढीठ हो गया है हर एक कुछ भी विचार रखने वाला प्राणी पछताता है और सोचता है कि यदि यों ही धन मिल जाता तो वह चोरी नहीं करता
और इस अशांति में नहीं आकर गिरता । प्रयोजन दिखाने का यही है कि इस चोर को भी शांति और संतोष ही प्यारा है । किसी इच्छा के पैदा होने पर उसके पूरा करने की चिन्ता होती है। जब तक वह पूरी न हो उसके सम्बन्ध में लोभ रहता है, इसी लोभ के भरने के लिये मायाचार करता है । यदि कोई इसके उपाय में विघ्न करता है तो उससे कोध करता है, उसको नीचव अपने को ऊंच समझ कर मान करता है । यदि इच्छा के अनुसार काम हो जाता है तब उस इच्छा के भरने से वह उस समय संतोष, शांति व सुख पा
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६)
श्री रामचन्द्र जी और सोता जी का जीवन इस बात का सब म उदाहरण हैं। दोनों के प्रेम में व मोग में बड़े बड़े विश भाए । अन्त में सीता जी तो इस विषय भोग की इच्छा को दुःख का मूल कारण समझ कर आत्म रस पीने से ही सुख शांति हामो इस भावना को ले साध्यो ( आर्थिका ) हो गई । तब रामचन्द्रजी जो उस समय सीता के मद से छुटे नये व उसके भोग को चाहते थे अपनी इच्छा के भीतर बाधा पड़ने से बहुत दुःखी हुए-इस दुनियां में इच्छाओं का होना ही आकुलता है यही रोग है जिसकी दवा हर एक प्राणी जहाँ तक होता है किया करता है । अन्त में मरते वक्त भी बहुत सी इच्छाओं को पूरा न कर सकने के कारण निराश व असन्तुष्ट व दुःख रूप हो होकर प्राण छोड़ता है ।
संसार में जीव छः प्रकार के हैं
१ एकेन्द्रिय जीव - जो वृक्ष, प्रथ्वी, जल, अमि, वायु काय धारी- इनके स्पर्श इन्द्रिय ( छूने की ) सबन्धी इच्छाएं होती हैं ।
२ इन्द्रिय जीव-लट, संख, कौड़ी आदि इनके छूने व स्वार लेने की इच्छाएं होती हैं ।
३ सेन्द्रिय जीव- वोंटी, खटमल, जूं आदि उनके छूने, स्वार लेने, व सूंघने की इच्छाएं होती हैं ।
४ चोन्द्रिय जोव - मक्ख, भोरा, पतंगा आदि इनके छूने, स्वाद लेने, सूंघने तथा देखने को इन्क्वाएं होती हैं ।
५. पंचेन्द्रिय जोव बिना मनडे-रानी के कोई कोई सर्प,
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
जंगली होते आदि बिना गर्भ से पैदा होने वाले छाने, स्वाद लेने, सूचने क देखने व सुनने की इच्छाएं होती है।
६ मनवाले पंचेन्द्रिय-घोड़ा, गाय, बन्दर, ऊँट, हाथी, काक, मोर, कबूतर, नाग, मच्छ, मनुष्य, देव, नारकी आदि इनके पाँचों इन्द्रियों के इच्छाओं के सिवाय मन के भीतर उठने वाले अनेक संकल्पों के पूरा करने की अनगिनती इच्छाएं होती हैं। जैसे मानवों में देखी जाती हैं । इसलिये वह प्रत्यक्ष प्रगट है कि हरएक संसार का प्राणी इच्छात्रों को प्राकुलता से दुःखी है । और उनकी पूर्ति के लिये जब तक जीता है तब तक कोशिश करता है परन्तु कभी ऐसी दशा में नहीं पहुँचता जब इसको इच्छाएं सर्व पूरी हो जावें और यह निराकुल या स्थिर सुखी हो जावे । बड़े बड़े कुटुम्बी धनवान पुत्र होने पर पौत्र, पौत्र होने पर प्रपौत्र इत्यादि का मुंह देखना चाहते हैं और श्राप सदा बलवान, निरोगी व अमरं होना चाहते हैं पर विचारे अन्त में निर्यल रोगी होकर इस शरीर से छूट जाते हैं तब भी उनकी इच्छाएं नहीं मिटती हैं।
हर एक विचारवान प्राणी को स्वयं अपने जीवन पर ध्यान देना चाहिये । वह यही देखेगा कि उसकी इच्छाएं जितनो जितनी पूरी होती हैं उतनी उतनी बढ़ती चली जाती हैं ।
सच बात यह है कि जैसे समुद्र नदियों के मिलने पर भी भरता नहीं व अनि ईधन से तृप्त नहीं होती, उसी तरह इच्छाओं व आशाओं का बड़ा भारी गहा किसी का भर नहीं सकता।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८ )
स्वामी गुरु भद्राचार्य श्रात्मनुशासन में यही कहते हैंआशा गर्त्तः प्रति प्राणि यस्मिन् विश्वमणूपम् । कस्य किं कि यदायाति, विषयैषिता ॥ ३६ ॥
वृथावो
भावार्थ- हर एक प्राणी के भीतर आशा या इच्छा का गड्ढा इतना गहरा है कि उसके भीतर यदि सर्व जगत के भोग्य पदार्थ डाल दिये जावें तब भी वह सब एक अणु के बराबर हो जायगे । अर्थात् उसकी आशा पूरी नहीं होगी और जगत के पदार्थ तो जो हैं सा हैं। किस किस के हिस्से में क्या क्या वस्तु आयगी क्योंकि लेने • वाले अनन्त प्राणी हैं इससे तुम्हारी विषय भोग की इच्छाएं वृथा हीं है पूरी कभी नहीं हो सकतीं हैं ।
स्वामी श्रीमन्त भद्रश्राचार्य स्वयं भू स्तोत्र में कहते हैंतृष्णा चिषः
"
परिदहन्ति न शान्ति रासा - मिष्टेन्द्रियार्थं विभवैः परिवृद्धिरेव | स्थित्यैवकाय परिताप हरं निमित्तमित्यात्मवान् विषय सौख्य पराङ्मुखोऽभूत् ॥ ८२
भावार्थ - तृष्णा की अग्नि ज्वालाएं प्राणियों को जलाती हैं। इनकी शांति इन्द्रियों के पदार्थों के भोगने से भी नहीं होती । उल्टी
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसका जवाई यही है कि इसको सुख और शांति चाहिये, उसको मिलने का मार्ग इस भज्ञानी को दूसरा कोई दिखसा नहीं । यह यही समके हुए हैं कि विषय भोग से ही सुख शांति मिलती है। इसका ऐसा समझना बिलकुल असत्य नहीं है । जिस समय विषय भोग होता है पिछली इच्छा मिटने से कुछ सुख शांति झलकती है; 'परन्तु यह बहुत थोड़ी देर रहती है और बुराई यह है कि तुर्त भौर इच्छा पैदा हो जाती है जिससे अशांति और असंतोष बढ़ जाता है।
इस विषय भोग से स्थिर सुख शांति मिलना व अशांति, दुःख व असंतोष का मिटना सर्वथा ही असंभव है-यह बात अनुभव सेहर एक प्राणी समझ सकता है। इसलिये यह उपाय सपा नहीं है जिससे इच्छात्रों का रोग मिटे । यह तो ऐसा ही है जैसा किसी कवि ने कहा है
मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। हमें ऐसा उपाय ढूँढ़ना चाहिये जिससे हमें स्थिर सुख शांति . :मिले और इच्छात्रों का रोग मिट जावे ।
सच्चे सुख का उपाय अपने में हो है • सुख शांति वास्तव में आत्मा का स्वभाव है । अपने ही भीतर सुख शांति पूर्ण भरी हुई है। इस बात को हम थोड़ा भी विचार करें तो तुर्त समझ सकते हैं। शांति का नाश क्रोधादि विकारों से
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
होता है। यह हम अनुभव करते हैं कि जब कोषावि भाग होते. हैं तब अशांति तथा दुःख होता है, और जब ये नहीं होते हैंतब शांति तथा सुख होता है। एक पादमी बहुत देर कोष नहीं कर सकता क्योंकि यह अपना स्वभाव नहीं है परन्तु शांत भाव में बहुत काल रह सकता है क्योंकि शांति हमारे आत्मा का स्वमार है।
क्रोधादिभाव किसी दूसरे निमित्त से होते हैं जिसका वर्णन आगे किया जायगा । जैसे जल उसी समय तक गर्म रहेगा जब तक गर्मी का सम्बन्ध है जो अग्नि के निमित से पैदा हुई है। परन्तु शीतलता उसमें सदा ही पाई जा सकती है-इसीलिये. शीतलता जल का स्वभाव है । इसी तरह आत्मा का स्वभाव सुख शांतिमय है-जो आत्मा में तिष्ठेगा वह सुख शांति का अनुभव करेगा। ___ जब श्रामिक सुख शांति का मजा आने लगता है तब उसके मुकाबले में संसारिक सुख तुच्छ दिखलाई पड़ता है । बस, यही कारण इच्छाओं के घटाव का है। एक प्रात्म-ध्यानी गृहस्थ के दिलों में आवश्यक कार्य सम्बन्धी इच्छाएं बाकी रह जाती हैं । वे जरूरी बहुत सी इच्छाएं मिट जाती हैं-ऐसा तत्व-शानी इच्छाओं का दास नहीं रहता हैं यदि इच्छाएं पूर्ण नहीं होती हैं तो अधिक चिन्ता नहीं करता है। आत्म-ध्यान के अभ्यास से जितना जितना आत्मानन्द का लाभ मिलता जाता है उतना उतना उसका वेग विषय सुखों की तरफ घटता जाता है। बस ! सुख शांति के पाने का
और इच्छाओं के वेगों के रोकने का एक मात्र उपाय आत्मा का ध्यान है इस ही को जैनमत ने धर्म कहा है व मुक्ति का मार्ग
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
बताया है। यह मार्ग उसी मीठी अमृतमई औषधि के समान है जिससे वर्तमान में भी मुँह मीठा हो और आगे भी बालों की पुष्टि हो । सदा से ही इस जगत में तीर्थ कर व अन्य महान पुरुषों ने सुख शांति पाने के लिये व इछात्रों के रोग मेटने के लिये भात्मध्यान ही का अभ्यास किया और आप ही अपने पुरुषार्थ से इच्छाओं के रोग से छूट गए और सदा के लिये सुख व शान्ति के भोक्ता हो गए।
मोक्ष उसी को ही कहते हैं जहां सर्व इच्छाएं व इच्छात्रों के कारण मिट जावें व यह श्रात्मा स्वतंत्र व सुखी हो जावे-इस मोक्ष का उपाय जैनमत में रसत्रयधर्म बताया गया है। श्रीकुन्द कुन्दाचार्य जी समयसार जी में कहते हैंजाणल्लि भावणा खलु
का दब्यो दंसणेचरित्तेय । तेपुणु तिरिणवि आदा
___ तम्हाकुण भावणंआदे ॥११॥ जो आद भावण मिणं - णिच्चुवजुत्तो मुणीसमाचरदि । सो सव्व दुक्ख मोक्खं
पावदि अचिरेण कालेख ॥१२॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४ )
है ऐसा निश्चय से जानो ||१९|| जैसे कोई धन को चाहने वाला पुरुष राजा को आन कर उसका श्रद्धान करता है और फिर उसी राजा की उद्योग करके सेवा करता है ||२०|| इसी तरह ओ मुक्ति चाहता है उसको उचित है कि आत्मारूपी राजा को जाने, उस पर चिलावे तथा उसका ही श्राराधन या ध्यान करे
'श्री उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में भी यही कहा है। " सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रणि मोक्षमार्गः”
भाव यह है कि अपने श्रात्मा के सचे स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । उसी ही का संशय रहित यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है तथा उसी ही के स्वरूप में एकचित्त हो आचरण करना सम्यग्चारित्र है- ये तीनों आत्मीक गुण हैं। आत्मा से भिन्न नहीं हो सके | इसलिये जो आत्मा का ध्यान करता है वह सुख शांति पाने व स्वाधीन होने के मार्ग पर चलता है और कभी न कभी परमसुखी, परमशांत और बिलकुल स्वाधीन हो जाता है ।
आत्मा का क्या स्वभाव
?
हमको आत्मा का स्वभाव जैसा वह शुद्ध अवस्था में होता है । विचारना है । यद्यपि हम आत्मा हैं परन्तु संसार अवस्था में हम युद्ध हैं, पाप पुण्यमई कर्मों के बंधन में जकड़े हुए हैं, इसी से क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, भयवान, इच्छावानं, दुःखी व सुखी,
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
भदत्थमस्सिदो खलु
सम्मा दिट्ठी हवदि जीवो ॥१३॥ भावार्थ-व्यवहारनय अभूतार्थ है अर्थात् जैसा पदार्थ असल में है वैसा नहीं बसाता है-उसकी अन्य प्रकार की दशाएं बताता है, अर्थात् उसके अनेक भेषों को समझाता है । जब कि शुद्ध नय या निश्चय नय सत्यार्थ है क्योंकि साचे असली पदार्थ को बताने वाला है ऐसा उपदेश किया गया है। असल में जो जीव इस सत्यार्थ निश्चय नय का आश्रय करता है अर्थात् असली स्वभाव पर ध्यान लगा कर आत्मा का अनुभव करता है वही सम्यग्दृष्टि जीव है। ___ श्रात्मा शुद्ध स्वयं कहता है कि (अतति जानाति इस आत्मा) कि वह एक जाननेवाला पदार्थ है। हमारे भीतर बान शक्ति काम कर रही है यह बात हम अच्छी तरह जान रहे हैं हम शरीर से छू कर गर्म, ठंढा आदि, जबान से चाखकर मीठा खट्टा आदि, नांक से सूंघकर सुगंध दुर्गध आदि, आँख से देखकर सफेद पीला श्रादि, कान से सुनकर सुखर दुःखर आदि का शान करते हैं। जब तक कोई जिन्दा कहलाता है तब ही तक इन पांचों इन्द्रियों के द्वारा शान होता है। मुरदा शरीर इन्द्रियों के आकार रखने पर भी नहीं जान सकता है। क्योंकि उस शरीर में से ज्ञान शक्ति को रखनेवाला शानी आत्माचल दिया है। __आत्मा जड़ अचेतन पदार्थों से एकजुदा चेतनामई पदार्थ है, जो कोई ऐसा मानते हैं कि जड़परमाणुओं के विकाश से चेतन शक्ति
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
पैदा हो जाती है उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है। क्योंकि न तो कभी अचेतन से चेतन बन सकता है न किसी ने बाजकाज बना के बताया है। जड़ परमाणुमों में सदा जड़पना व अजानपना रहेगाइसलिये उनसे बनी हुई वस्तु में भी वही अजानपनाया जड़पना रहेगा। क्योंकि हर एक अवस्था जो इस दुनियां में पैदा होती है वह किसी वस्तु की ही होती है जिसकी अवस्था में भी वही गुणपाए जाते हैं जोमूल वस्तु में होते हैं । सुवर्ण से सुवर्ण के व लोहे से लोहे के बर्तन ही बनेंगे। जैसे अमूर्तीक जड़ आकाश से मूर्तीक जड़ पदार्थ या अमूर्तीक चेतन पदार्थ नहीं पैदा हो सकते हैं। वैसे मूर्तीक जड़ पदार्थ से अमूर्तीक या चेतन पदार्थ नहीं पैदा हो सकते हैं । जड़ की बनी चीजों में स्मृति, ज्ञान, विचार व भिन्न भिन्न भावों का पलटना नहीं हो सकता है । जड़ से बनी धूप, छाया, रोशनी एकसी दशा में जब तक वे रहें रहेंगी, वे इच्छानुसार घट या बढ़ नहीं सकती है-परन्तु जिन प्राणियों में जीव है वे इच्छानुसार काम करते हुए दिखलाई पड़ते हैं। एक चींटी चलते चलते रुक जाती है-कहीं पर सुगंध पाकर दौड़ जाती है । "मैं जानता हूँ" "मैं भोगता हूँ" "मैं सुखी हुआ" "मैं दुःखी हुआ" इत्यादि मान जड़ को नहीं हो सकता है इसलिये जो यह सब शान रखता है उसी को
आत्मा कहते हैं इसलिये आत्मा को जड़ से भिन्न स्वतंत्र चेतन पदार्थ ही मानना चाहिये-जैसे जड़ परमाणु अमर अविनाशी हैं वैसे सर्व आत्माएं इस लोक में अमर अविनाशी हैं। जब यह नियम है कि सत् (मौजूदा) पदार्थ कमी असत् (गैर मौजूदा) नहीं हो सकता अथवा असत् पदार्थ कभी सत् नहीं हो सकता तब यह सिद्ध
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
है कि जड़ या चेतन जितने भी पदार्थ इस जगत में हैं वे सब मूल में अमर और अविनाशी हैं। . . . .
निश्चय नय से इस प्रात्मा का स्वभाव स्वामी कुदकुंदाचार्य जी ने समय सार में इस मांति कहा है :
अह मिक्को खलु सुद्धो,
दसण णाणमइओ सयारुवी। णवि अस्थिमज्झ किंचिव,
अण्णंपरमाणु मित्तं वि ॥४३॥ भावार्थ-शानी को ऐसा अनुभव करना चाहिए कि मैं आत्मा सदा एक सबसे निराला हूँ: शुद्ध वीतराग हूँ, दर्शन झानमयी हूँ, व अमूर्तीक हूँ-अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है-यह प्रोत्मा अन्य पांच अजीव द्रव्यों से जुदा है-जैनमत कहता है कि यह जगत छः द्रव्यों का समुदाय है । ये छः द्रव्यसत् अविनाशी हैं, व अकृत्रिम हैं। इसी लिये इन छः द्रव्यों का समुदाय यह जगत भी सत् अविनाशी और प्रकृत्रिम है।
आत्मा के सिवाय. पात्मा से भिन्न लक्षणधारी पुगल धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल हैं जिसमें स्पर्श, रैस, गंध, वर्ण पाया जावे ऐसे परमाणु या स्कंध सब पुद्गल हैं।
जिनमें मिलने व विछड़ने की शक्ति होती है उनको ही पुद्गल कहते हैं-जीव और पुद्गल हलन चलन करते हैं, ठहरते हैं, अबकाश पाते हैं तथा अवस्था बदलते हैं। इनचारों कामों में सहकारी
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२०
)
स्वसंवेदनसुव्यक्त स्तनु
मात्रो निरत्ययः। अत्यंत सौख्यवानात्मा
लोका लोक विलोकनः ॥२१॥ भावार्थ:-यह आत्मा यद्यपि निश्चय से इस जगत के बराबर फैलने वाला है तथापि प्रत्येक शरीर में शरीर प्रमाण आकार में व्यापक है, नाश रहित है, लोक व अलोक को देखने वाला है तथा अत्यन्त सुखी है तथा जो मन की वृत्ति को रोककर अपने में ही विश्राम करता है उसे स्वानुभव के द्वारा भले प्रकार प्रगट होता है।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार कलश में कहते हैंआत्म स्वभावं परभाव भिन्न ,
मापूर्णमादात् बिमुक्त मैकं । घिलीन संकल्प विकल्प जालं ,
प्रकाशयन् शुद्ध नयोऽभ्युदेति ॥ १० ॥ भावार्थ-आत्मा का स्वभाव परभाव अर्थात् सर्व प्रात्मा से व सर्व अनात्म प्रव्य से व श्रीपधिक रागद्वेषादि भावों से जुदा है. अपने ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि शुद्ध गुणों से परिपूर्ण है, आदि व अन्त रहित हैं, एक है, संकल्प विकल्प के जालों से शून्य है ऐसा निश्चयनय बताता है।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१ ) यह आत्मा सदा बने रहने की अपेक्षा नित्य है । समय समय समुद्र तरंगों की तरह परिणाम पलटने की अपेक्षा भनित्य है। अपने स्वरूप की अपेक्षा अस्ति रूप या भाव रूप है परके स्वरूप की अपेक्षा नास्तिरूप या अभावरूप है । अत्यन्त गुण व पर्याओं का समुदाय होने से एक रूप है तथा एक एक गुण व पर्याय आत्मा के सर्वाश में व्यापक है इससे बात्मा अपने रूप है जैसे शान गुण की अपेक्षा ज्ञान रूप, सुख गुण को अपेक्षा सुख रूप, वीतरागता की अपेक्षा वीतराग रूप ।
मिन मिन्न दृष्टि विंदुओं से अनेक स्वभावों को वस्तु में बताने वाला होने से जैनमत को अनेकान्त मत कहते हैं। भनेक धर्मों के साधने के लिये ही स्याद्वाद सिद्धान्त है-स्यात् = किसी अपेक्षा से, वाद = कहना-जैसे स्यात् एकः = समूह की अपेक्षा एक है, स्यात् अनेकः = अनेक प्रथक् प्रथक गुण व स्वभावों की अपेक्षा अनेक रूप है। इसी स्यावाद को बताने के लिए श्री उमास्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र में यह सूत्र दिया है।
अर्पितानर्पितासिद्धः ॥३२॥५॥ अर्थात् जिस स्वभाव को बताना हो उसको अर्पित या मुस्त्य करलो दूसरों को अनर्पित या गौणकर दो क्योंकि एक साथ कई स्वभावों का वर्णन हो नहीं सकता है। बचन में यह शक्ति नहीं है निश्चय नय से आत्मा परम पवित्र झाता दृष्टा अमूर्तीक, परम शांत व परमसुखी है व हर एक के शरीर में व्यापक है ऐसा समझना चाहिये यह शक्ति रूप परमात्मा
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२ ) जैनियों में सात तत्त्व । जैनियों में सात तत्त्व व्यवहारनय से प्रात्मा की अशुद्ध अवस्था को समझाने व अशुद्ध से शुद्ध होने के उपाय बताने के लिए बताए
. (१) जीव और (२) अजीव तत्त्वमेछ:मूलद्रव्यगर्भित हैं जिनको पहले बताया जा चुका है-इन्हीं में पुद्गल द्रव्य के बने हुए कार्मणस्कंध बहुत सूक्ष्म सर्व जगह व्यापी हैं। इनहीं से जीवों का कार्मण देह या पुण्य पापमई कारणदेह निरन्तर बनता रहा है। इस तरह जीव और अजीव कर्म बंध इन दोनों के सम्बन्ध का नाम संसार है तथा इन दोनों के छूटने का नाम मोक्ष है।
" (३) आश्रयतत्त्व बताता है कि मन वचन काय के हिलने से तथा मिथ्या श्रद्धान, हिंसादि भाव, व क्रोधादि भावों के निमिच से
आत्मा सकंप होता है तब चारों तरफ के कार्मणस्कंध आ जाते हैं। जिन भावों से कर्म आते हैं उनको भावानव और कर्मों के आने को द्रव्यानक कहते हैं।
(४) बंधतत्व बताता है कि वे कर्म आकर आत्मा के क्रोधादि भावों के निमित्त से किसी काल की मर्यादा को लेकर पुराने कार्मण शरीर के साथ बंध जाते हैं। जिन भावों से बंधते हैं उनको भाव गंध व कर्म बंध को द्रव्य बंध कहते हैं। . . . (५) संवरतत्त्व-कर्मस्कंधों को रोकने के लिये जिन भावों से कर्म आते हैं उनसे विरोधी भावों को करने से आते हुए कर्म रुक जाते हैं। जैसे मिथ्याश्रद्धान का विरोधी सच्चा श्रद्धान है, हिंसादि
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३ ) पंच पापों के विरोधी अहिंसादि पाचनत हैं, कपायों का विरोधी चीतराग भाव है, मन वचन काय का विरोधी इनको यश रखना है। जिन भावों से कर्म रुकते हैं वह भाष संवर है और कमों का रुकना द्रव्य संबर है।
(६) निर्जरातत्त्व-पुराने बंधे हुए कर्मों को दूर करने को निर्जरा कहते हैं-कर्मस्कंध बंधने के पीछे धीरे धीरे अपना फल देकर झड़ते जाते हैं । जैसे हम स्वयं भोजन जल हवा लेते व स्वयं उनका फल नित्य भोगते हैं वैसे संसारी जीव स्वयं पुण्य पाप कर्म बांधते हैं और उनका सुख दुःख फल भोगते हैं। इसके सिवाय आत्मघ्यान व वीतराग भाव के द्वारा बिना फल भोगे हुए अनेक कर्मस्कंधों को आत्मा से जुदा करना सो वास्तव में निर्जरातत्त्व है। जिन शुद्ध वीतराग भावों से कर्म झड़ते हैं वह भावनिर्जरा है तथा कर्मों का झड़ना सो द्रव्य निर्जरा है।
(७) मोक्षतत्त्व-आत्मध्यान के अभ्यास से सब कर्म बंध कट जाते हैं-व नए कर्म नहीं बंधते हैं तब यह जीव कार्मण देह से छूट कर बिलकुल शुद्ध हो जाता है तब जिस शरीर से मुक्त होता है उस शरीर के आकार जैसे आत्मा के प्रदेश थे उनका वैसे ही स्थित रहना व स्वभाव से ऊपर जाकर लोक शिखर पर ठहर जाना सो मोक्ष है। जिन भावों से सब कर्म स्कंध छूट जाते हैं वह भाव मोक्ष है और सब कमों का छूट जाना द्रव्य मोक्ष है।
इन सात तत्वों से यह ज्ञात होता है कि यह आत्मा अशुद्ध कैसे होता है व अपनी अशुद्धता को कैसे मेट सकता है। यह व्यवहारनय से प्रात्मतत्व का ज्ञान है । जैनमत कहता है कि निश्चय
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४ ) और व्यवहारमय से जानने वाला ही सच्चे तस्ववान को पाता है और आत्मा के शुद्ध स्वभाव में रमणकर सुख शांति का भोग ले सकता है।
श्री अमृतचंद्र प्राचार्य पुरुषार्थ सिद्ध पाय में कहते हैं :ज्यवहार निरचयायः
प्रबध्यतत्त्वेन भवतिमध्यस्थः प्राप्नोति देशनायः सएवफल
मविकलं शिष्यः ॥८॥ जो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को सच्चा जानकर वीतरागी हो जाता है वही शिष्य जैनमत के उपदेश के पूर्ण फल को पाता है।
आत्मा को शुद्ध करने का व सुख शांति पाने का उपाय भी वही प्राचार्य बताते हैंविपरीताभिनिवेशं निरस्य
सम्यग्यव्यवस्य निज तत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनंस एव
पुरुषार्थसिद्धपायोऽपम् ॥१५॥ भावार्थ-जो उल्टा भाव या भूल भरी बात को हटाकर, अच्छी तरह अपने आत्मा के स्वभाव को समझ लेते हैं ; फिर उस स्वभाव में हरते हैं वे ही मुक्ति रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि कर पाते हैं। जैनमत ने सच्चे सुख के पाने का उपाय एक मात्म-ध्यान को ही बताया है।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२५
)
आत्म-ध्यान का उपाय
आत्म-ध्यान करना कोई कठिन काम नहीं है-इसके लिये सब से जियादा आवश्यक बात यह है कि मन को ध्यान के समय राग, द्वेष मोह से हटाया जावे । संसार के सब पदार्थों से मोह छोड़ दिया जावे, नकिसी से राग किया जाये न द्वेष । उस समय यह समझे"हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जग का व्यवहारा"
अपने शरीर से भी ममता हटा ली जावे, मात्र अपना लक्ष्य आत्मा के स्वरूप पर रक्खा जावे जिसको निश्चयनय से जाना है व जिसकी ओर मचि पैदा की है । यह नियम जिधर रुचि होती है उधर मन अपने आप चला जाता है ।
श्रीपूज्यपाद स्वामी समाधि-शतक में कहते हैं:-- यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा चित्ततत्रैव लीयते ॥५॥ __ भावार्थ-जिस किसी वस्तु को यह आत्मा बुद्धि से समझ लेता उसी में ही इसकी रुचि पैदा हो जाती है। जिस किसी में रुचि हो जाती है वहीं चित्त लय हो जायला रुचि पैदा करने के लिये सच्चे सुख शांति काम आवश्यक है तथा आत्मा के सच्चे स्वभाव का विश्वास होना चाहिये तशी को अब ध्यान करना हो तब अपने शरीर में ही ज्यामानित जल के समान शुद्ध प्रात्मा को देखे । 'शुद्ध स्वरूपोह इस वाक्य को कहता रहे व
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमी कभी विचारता रहे कि मैं शुद्ध मातादृष्टा पानन्दमई एक परम पदार्थ हूँ-इसी प्रकार की भावना बारबार करने से चित्त कुछ कुछ थमने लग जायगा और प्याता को ध्यान का लाभ पल विपल के लिये होने लग जायगा । आत्म ज्ञान ही आत्म ध्यान का साधक है ऐसा ही श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार कलश में कहा है:सिद्धान्तोयमुदात्त चित्त,
चरितै मेक्षिार्थिभिः सेव्यतां । शुद्धं चिन्मय मेकमेव परमं,
ज्योतिः सदै वास्म्यहं । एते ये उस मुल्ल सन्ति,
विविधा भावाः पृथग्लक्षण । स्नेह नास्मि यतोत्र,
ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥६॥ भावार्य-सिद्धान्त यह है जिसे निर्मल चारित्रधारी मोक्ष के चाहने वालों को सेवना चाहिये कि मैं सदा ही एक शुद्ध चैतन्यमई उत्कृष्ट शान ज्योति हूँ और जो कुछ रागादि भाव झलक रहे हैं के सब मुझसे मित्र हैं वे मेरे रूप नहीं है। क्योंकि वे सब मेरे शुद्ध स्वभाव से जुदे पर द्रब्य हैं। ध्यान के लिये एकान्त स्थान, मन, वचन, कायकी शुद्धि, चित्त की समाधानता, आसन जिससे शरीर
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
जमा हुमा रहे, नियमित शुद्ध भोजन पान, निद्रा, यम, नियम मादि साधनों की आवश्यकता है।
वास्तव में आत्म-ध्यान तत्वज्ञानी के लिये इतना दुर्लभ नहीं है तथापि साधारण मानवों के लिये इसका सिद्ध करना कठिन है परन्तु वे यदि व्यवहार धर्म के आश्रय से अभ्यास करे तो उनको उसकी सिद्धि धीरे धीरे हो सकती है। वास्तव में निश्चय रत्नत्रय, या
आत्मनुभव या आत्मध्यान ही सुख शांत का व स्वाधीन होने का व शुद्ध होने का उपाय है।
जैसे पेट भरने का उपाय भोजन करना है। परन्तु जैसे भोजन का मिलना कठिन है। भोजन होने के लिये द्रव्य, सामग्री फिर उसका तय्यार करना आदि साधन चाहिये। वैसे ही प्रात्म-ध्यान के लिये बाहरी साधन चाहिये । इस ही साधन को व्यवहार रत्नत्रय या व्यवहार धर्म कहते हैं । यह व्यवहार धर्म निश्चय धर्म की प्राप्ति का निमित्त कारण है।
व्यवहार धर्म व्यवहार सम्यग्दर्शन, ब्यवहार सम्यग्ज्ञान व व्यवहार सम्यग्चारित्र को व्यवहार धर्म कहते हैं
व्यवहार सम्यग्दर्शन जीव आदि सात तत्त्वों पर विश्वास करना है जिनका कथन पहले संक्षेप से कह दिया गया है तथा सच्चेदेव, सच्चे शास्त्र व सच्चे गुरु पर विश्वास लाना है जो सात तत्वों की श्रद्धा का कारण है।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८ )
अज्ञान व क्रोधादि विकारों से रहित ऐसा सर्वज्ञ पीत राग ही सच्चा देव है । जो सर्वज्ञ वीतराग शरीर सहित होकर उपदेश देते हैं उन्हें अरहन्त भगवान कहते हैं तथा जो शरीर रहित शुद्ध परमात्मा है वे सिद्ध भगवान हैं । अरहन्त भगवान का जो धर्मोप्रदेश - होता है उसी को प्रकाश करने वाले निश्चय और व्यबहार नय से व स्याद्वाद के द्वारा वस्तुओं का स्वरूप झलकाने वाले प्रमाणीक starगी ऋषियों के व तदनुसार अन्यों के रचे हुए जैन शास्त्र हैं जो परिग्रह व श्रारम्भ के त्यागी होकर निरन्तर ज्ञान ध्यान तप में ली हैं वे ही सब गुरु हैं। इनमें जो दूसरे साधुओं को दीक्षा शिक्षा देते हैं वे गुरु आचार्य हैं, जो दूसरों को शास्त्र ज्ञान देते हैं वे गुरु उपाध्याय हैं व जो मात्र साधन करते हैं वे साधु हैं । जैनमत में अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु को ही परम पदवी धर व पूज्यनीय मानते हैं - इन्हीं को नमस्कार हो ऐसा बताने वाला प्रसिद्ध णमोकार मंत्र इस तरह हैं
णमो अरह ताणं (अरहंतो को नमस्कार हो) णमो सिद्धाणं (सिद्धों को नमस्कार हो)
णमो श्रइरीयाणं (आचार्यों को नमस्कार हो)
णमो उवज्झायाणं (उपाध्याओं को नमस्कार हो)
णमो लोएसव्वसाहूणं (लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो) इस मंत्र में ३५ अक्षर हैं।
सात तत्वों का संक्षेप से या विस्तार से शास्त्रों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करना सो व्यवहार सम्यग्ज्ञान है । साधु और गृहस्थ के योग्य आचरण करना सो व्यवहार सम्यग्चरित्र है ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२९ )
गृहस्थों का व्यवहार चारित्र
एक साधारण गृहस्थ को निश्चय धर्म अर्थात् प्रास्म-ध्यान के हेतु से नीचे लिखे छः कर्तव्य रोज पालने चाहिये
(१) देवपूजा-अरहंत और सिद्ध की पूजा करना । ये पूजा अरहंत भगवान की उनके समक्ष भी हो सकती है। तथा उनके वीतराग स्वरूप को बताने वाली उनकी मूर्तियों से भी हो सकती है-धातु पाषाण की परम शांत पद्मासन या कायोत्सर्ग मूर्तियां वस्त्रा भूषण रहित मन में शांति व वैराग्य पैदा करने के निमित्त कारण हैं। इनके द्वारा स्वरूप विचारते हुए उनके गुणानुवाद करते हुए वमन में भक्ति पैदा करने को जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप व फल चढ़ाते हुए पूजा भावों में वैराग्य व शुभ भाव पैदा करती है जिससे प्रात्म-ध्यान का लाभ होता है, व सुख शांति प्राप्त होती है।
(२) गुरु भक्ति-साधुओं की सेवा में जाकर उनकी सेवा करनी व उनसे धर्मोपदेश गृहण करना गुरु सेवा भी श्रात्मध्यान की कारण है । व सुख शांति देनेवाली है।
(३) स्वाध्याय-जैन शास्त्रों को रोज पढ़ना, सुनना, या विचारना-धर्मचर्चा करनी अध्यात्मिक ग्रंथों को अधिक पढ़ना जैसे परमात्माप्रकाश, समयसार, ज्ञानार्णव, समाधिशतक, इष्टोप्रदेश।
(४) तप- इसमें मुख्यता से रोज सवेरे और सांझ थोड़ी देर एकान्त में बैठ कर सामायिक या आत्मासम्बन्धी विचार करना
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
( .३० ) पाहिए-जैसे पहले कहा जा चुका है अपने शरीर के भीतर ही अपने आत्मा को निर्मल जल के समान पवित्र विचार कर उसमें दुबकी लगानी चाहिये। .
इसके निरन्तर अभ्यास से प्रात्मध्यान जमता चला जायगा ।
(५) संयम-मन व इन्द्रियों को वश में रख कर, अन्याय सेवन व अभक्ष्य भोजन से बचना चाहिये तथा दयापूर्वक जगत में व्यवहार करना चाहिये।
(६) दान-दूसरों के उपकार के लिये आहार, औषधि, विद्या व अभयदान यथासंभव रोज करना चाहिये । परोपकार से चित्त कोमल व उदार होता है । संयम और दान आत्मभ्यान में
सहायक हैं।
.
__इन छः कमों को करना उचित है ऐसा विश्वास रखते हुए यदि किसी गृहस्थ से कोई कर्म कभी किसी लाचारी से न हो सके तो कोई दोष नहीं है।
किन्तु छहों कमों के करने से जो लाभ होता उसमें मात्र कमी रह गई है । यदि कोई ऐसी स्थिति में है कि सामायिक व स्वाध्याय
आदि तो करता है परन्तु दर्शन व देव पूजा का अवसर नहीं निकाल सकता है तो उसे अधर्मी नहीं कहा जा सकता जब तक उसके मनमें श्रद्धा है व लाचारी वश वह नहीं कर सका है। अथवा किसी का मन किसी कर्म में अधिक लगता है और दूसरों को कम करता है व कभी नहीं करता है परन्तु करना लाभदायक सममता है तो भी वह अधर्मी नहीं हो सकता ; क्योंकि जैन मत में प्रयोजन आत्मध्यान करके सुख शांति पाने का है वह जिस तरह
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२ ) किविना यान का अभ्यास किये सुख शांति का लाम मले प्रकार नहीं होगा और न भास्मा में खाधीन स्वात्मानुभव की शक्ति पैदा होगी। इसी तरह मूर्ति पूजक श्वेताम्बर भाई मूर्तियों से मदद तो लेते हैं परन्तु वैराग्यमय मूर्ति बना कर भी उसणे मुंगारित कर देते हैं। प्रभूषण व मुकुट आदि पहना देते हैं सो उचित नहीं है क्योंकि उससे भगवान की शांत मुद्रा के दर्शन में दर्शक को अन्तराय कता है। ___ जैसे हम किसी साधु को अलंकृत नहीं कर सकते हैं वैसे हमें जिन प्रतिमा की भी अंगारित नहीं करना चाहिये-सनातन जैनमत ऐसा नहीं है। ___ एक मामूली गृहस्थ को नीचे लिखी आठ पाते भी छोड़ देनी पाहिये । जैसा श्री समन्त भद्राचार्य रस्मकरंद प्रावकाचार में बताते हैंमदद मांस मधुत्यागैः सहाणु व्रत पंचकं । अष्टौ मूलगुणानाहुर्य हिणां श्रमशोत्तमाः॥६६॥
अर्थात्-गृहस्थियों के लिये ये आठ मूल गुण तीर्थकरों ने बताये हैं
अर्थात् इनका पालना उनके लिये अत्यन्त आवश्यक है । इनके पालने से गृहस्थ अन्याय से बचते हैं तथा जगत के प्राणी उनके द्वारा कष्ट नहीं पाते हैं
(१) मदिरा या शराब नहीं पीना चाहिये।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा अन्य भी नशे यथाशकि न लेने का उधन करना चाहिये । क्योंकि मद्य जीव की चेतन शक्ति का पात करता है।
(२) मॉस कभी नहीं खाना चाहिये क्योंकि यह स्वयं मनगिनती कीड़ों का ढेर है। बहुत हिंसा का कारण है अप्राकृतिक है और अनावश्यक है।
प्रवीण डाक्टर सब इसके विरुद्ध हैं।
Dr. Josiah Old Field D. C. L. M.A., M. R. C. S., L. R.C.P., Senior Physician, Margaret Hospital Bombay ग० जोसिश्रा प्रोल्ड फील्ड कहते हैं__ ......Products of the vegetable kingdom contain all that is necessary for the fullest sustenance of Human life, flesh is an ugoatural food and leads to create functional disturbance.
अर्थात् शाकाहार में सब कुछ है जो मानव जीवन की पूरी स्थिति के लिये आवश्यक है। मॉस अस्वाभाविक भोजन है और शरीर में रोग पैदा करता है।
दयावान मानव को कभी भी माँश खाना चित नहीं है। इसीके कारण अनेक उपयोगी कृषि के योग्य पशु भी कसाई खाने में बध किये जाते हैं।
(३) मधु या शहद नहीं खाना चाहिये क्योंकि यह मक्खियों का उगाल है व उनको बहुत कष्ट देकर लाया जाता है व उसके रस में अनगिनती कीड़े पैदा होते हैं
ये. तीन मकार कहलाते हैं। इनको कमी लेना न चाहिये।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
औषधि में भी इनको लेना उचित नहीं है। राक्टरी दवाओं में माँस व मदिरा का सम्बन्ध रहता है व वैद्य लोग औषधियों में मधु गलते हैं। यदि यकायक इन दोषों को न दूर कर सकें तो पीछे छोडे । वैसे माँस खाना, व शराब पीना तथा शहद को शौक से खाना तो जरूर छोड़ें।
पांच अणु ब्रत नीचे प्रकार है:
(१) अहिंसा अणुनत-संकल्प या इरादा करके जानवरों को न मारे। ऐसी संकल्पी हिंसा धर्म के नाम से पशु बलि करने में, मांसाहार के लिये शिकार खेलने में होती है। इसलिये इन निरर्थक हिंसाओ को त्यागे । मामूली गृहस्थी गृहारंभी, उद्यमी व विरोधी हिंसा छोड़ नहीं सकता है। तो भी व्यर्थ न करे जो भोजन, पान, मकान बनान, बाग लगाने, कूप-बावड़ी खोदने में होती है वह गृहारंभी हिंसा है । जो आजीविका के कर्म, असि ( तलवार ) मसि, ( लेखनी ) कृषि, वाणिज्य, शिल्प व विद्या ( हुनर ) के कार्य करने में होती है वह उद्यमो हिंसा है. जो देश, नगर, घर, स्त्री, पुत्र, माल असबाब पर हमला करने वालों को रोकने में व उनके साथ युद्ध करने में होती है वह विरोधी हिंसा है। जैन गृहस्थ राज्य शासन, व्यापार श्रादि सब कुछ कर सकते हैं । वे देश-परदेश रेल, रेल, जहाज आदि पर जा सकते हैं । उनको अपने धर्म की श्रद्धा दृढ़ रखनी व माँस, शराब से परहेज करना जरूरी होगा। मामूली जैन गृहस्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार भिन्न भिन्न देशों । में जाकर नीति व धर्म को नहीं छोड़ता हुआ अपना काम कर सकता है । जो विचारवान ब्रती गृहस्थ हैं जिनका वर्णन आगे किया
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
की एक मर्यादा बाँधले कि इतनी सम्पति होने पर मैं सन्तोच रक्तूंगा और तत्र परोपकार में संतोष पूर्वक जीवन विताऊँगा।
जो गृहस्थ आत्मा के सच्चे सुख को भोगते हुये सांसारिक जीवन विता कर हर एक प्रकार की उचित राज्यनैतिक, व्यापारिक, सामाजिक भादि लौकिक उन्नति करना चाहते हैं उनके लिये ऊपर लिखा हुआ मामूली गृहस्थ का व्यवहार धर्म है जो बड़ी सुगमता से पाला जा सकता है।
जिनको आत्म ध्यान की रुचि हो जावेगी वे ही सच्चे जैनी हैं। ऐसे ही जैनो जैसा अवकाश होता है उसके अनुसार देवपूजा, गुरु भक्ति, सामायिक ब शासन पठन करते हैं और नीति से चलने के लिये अहिंसादि पांच अणुव्रत का पाचरण करते हैं। ऐसे गृहस्थ राजा या प्रजा दोनों अन्याय से बिलकुल बचेंगे; दूसरों को जीवित रखते हुए, दूसरों का दुःखी न करते हुए अपना जीवन विताएंगे। अहिंसा और सत्य उनका मूल मन्त्र होगा। वे जगत मात्र के जीवों का हित चाहेंगे व यथाशक्ति भलाई करेंगे।
एक जैनी के लिये आशा है कि वह नीचे लिखी चार भावनाएं करता रहे"मैत्री प्रमोद कारुण्यं माध्यस्थानि च । सत्त्व गणाधिक क्लिश्यमाना विनयेषु॥११७ ता० सू० . भावार्थ-सर्व प्राणी मात्र के साथ मित्रता रखना अर्थात् सब का भला चाहना, गुणों में जो अधिक हों उनको देखकर प्रमोद या हर्ष भाव करना, दुःखी जीवों पर क्या भाव रखना, क्या जो अपने
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
से विरुद्ध सम्मति के हों व भविनयी हों उन पर मामय भाव रखना अर्थात् उनसे न प्रेम रखना न उनसे द्वेष करना । ओ अपने चारित्र में उन्नति करते हुए त्याग मार्ग की ओर मुगना चाहते हैं उन गृहस्थों के लिये ग्यारह प्रतिमाएं या श्रेणियां बताई गई हैंउन श्रेणियों के नाम ये हैं-(१) दर्शन (२) व्रत (३) सामायिक (१) प्रोष घोपवास (५) सचित्त त्याग (६) रात्रि मुक्ति त्याग (७) ब्रह्मचर्य (८) प्रारम्भ त्याग (९) परिप्रह त्याग (१०) अनुमति त्याग (११) उदिष्ट त्याग।
इनका संक्षेप स्वरूप स्वामी समंत भद्राचार्य ने रत्नकरड श्रावका चार में इस तरह बताया है
पहली श्रेली-दर्शन प्रतिमा सम्यग्दर्शन शुद्धः संसार शरीर भोग निर्विराणः। पंच गुरुचरण शरणादर्श निकस्तत्त्वपथगृह्यः॥१३७
भावार्य इस दरजे वाले गृहस्थ की श्रद्धा जैनमत के तत्वों पर निश्चय और व्यवहार धर्म पर पकी व शुद्ध होनी चाहिये, ऐसे गृहस्व का मन संसार को दुःख रूप, शरीर को अपवित्र व नाशवंत तथा भोगों को नाशवन्त व अतृप्तिकारी समझ कर इनसे वैराग्य रूप हो वह परहंत, सिख, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परम गुरु के चरणों का सेवक हो सथा तत्व के मार्ग को गृहण करने वाला हो अर्थात् मद्य, मांस आदि तीन मकार का त्यागी हो और पांच अणुव्रत का पालने वाला हो ऐसे आठ मूल गुण को पालता हो
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३८ )
सम्यग्दर्शन को शुद्ध रखने के लिये जाति (मामा कां-पक्ष ) कुल ( पिता का पक्ष ) धन, विद्या, अधिकार, रूप, बल, तप-इन आठ शक्तियों के होने पर कभी घमंड न करे। इन बलों से परोपकार - कर तथा ज्ञान पूर्वक जगत में व्यवहार करके नीचे लिखे आठ अंग पाले
(१) सच्चे धर्म की ऐसी अटल श्रद्धा रक्खे कि कभी कष्ट पड़ने पर भी उसे न छोड़े, तथा सत्य के कहने व पालने में कभी भय न करे । कर्मों के उदय के सामने निर्भय रहे एक वीर योद्धा के समान संसार में चले । प्राण जाय तौ भी सत्य मार्ग को न त्यागे ।
(२) क्षण भंगुर इन्द्रिय सुख की इच्छा न करे – धर्म को सभी सुख शांति पाने व स्वाधीनता के लिये सेवन करे ।
(३) रोगी, दुःखी प्राणी व अचेतन घृणित पदार्थों को देखकर मन में ग्लानि न लावे | उनके स्वरूप को विचार कर समभाव रक्खे भील, म्लेच्छ. चंडाल, मिहवर आदि पर भी दया रख के उनके जीवन को सुधारने के लिये सत्य धर्म का उपदेश देकर धर्म की श्रद्धा करावे व मद्य मांसादि छुड़ावे व पांच अणुव्रत गृहण करावे । पतितों का उद्धार करना बड़ा भारी परोपकार है ।
(४) मूढ़ता से देखा-देखी बिना समझे मिथ्या धर्म क्रिया को नहीं करने लग जावे ।
(५) अपने आत्मा से दोषों को हटावे व उसके गुणों को बढ़ावे, धर्मात्मा आदि की निन्दा न करके उसके दोषों को अम्य रीति से निकालने की चेष्टा करे ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६) अपने आत्मा को सल मार्ग से डिगते हुए गांभेक, दूसरों को भी रद करने का उद्योग करवा रहे। . (७) स धर्म के मानने वालों के साथ गौ वच्छ के समान प्रेम रक्खे उनके संकटों को अपना संकट समझ कर उनको दूर करे।
(८) जैन धर्म के तत्त्वों को जगत में विस्तार करके धर्म की प्रभावना या उन्नति करे ; अजैनों का जैनी बनाये; जो जीव सात तत्वों को नहीं जानते व सच्चे आत्म स्वरूप व आत्मानन्द को नहीं पहचानते हैं वे मानव जन्म पा करके उससे कुछ लाभ नहीं ले रहे हैं ऐसा दिल में दया भाव लाकर जगत भर के मानवों को पुखकों के और उपदेशों के द्वारा तथा अपने आचरण के द्वारा धर्म का स्वरूप बताकर उनके दिलों में सच्चा तत्त्व जमा कर उनको सच्चे जैन मार्ग पर प्रारूढ़ करना व उनसे आठ मूल गृहण कराना बड़ा भारी धर्म का अंग है । हर एक जैनी का कर्तव्य है कि यह एक वर्ष में कम से कम १२ अजैनों को अवश्य जैनी बनावे उनकी
आत्मा को पवित्र करे । हमारे जैनाचार्यों ने चंडाल व भील आदि को धर्मोपदेश देकर जैनी बनाकर उनको दुर्गति से बचा कर स्वर्ग में भिजवा दिया था । सब आत्माओं को समान समझ कर सब के साथ उपकार करना यह एक जैनी का मुख्य कर्तव्य है।
(२) दूसरी श्रेणी व्रत प्रतिमा निरति क्रमण मणुव्रत पंचकमपि
शीलसप्तकंचापि।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०)
धारयते
निःशल्योयोऽसौव्रतिनांमतोव्रतिकः ॥ १३८ ॥
भावार्थ - जो मायाचार, मिथ्या भाग व निदान ( भोगांकाक्षा ) इन तीन शल्य या कांटों से रहित हो, अतिचार ( दोष ) रहित श्रहिंसादि पाँच अणुव्रतों को पालने वाला हो, व सात शील को धारण करता हो, यह आत्मा व्रतियों के भीतर व्रत प्रतिमा वाला कहा गया है।
पाँच श्रहिंसादि श्रणुव्रतों के अतिचार ये हैं
जैसे क्रोधादि वश बाँधना, मारना, छेदना, अति बोझा लादना, अनपान रोकना, मिथ्या उपदेश देना, गुप्त स्त्री पुरुषों की बात कहना, झूठा लेख लिखना, अमानत को झूठ कह कर ले लेना, गुप्त सम्मति को प्रगट कर देना, चोरी का उपाय बताना, ऐसा माल लेना, राज्य विरुद्ध होने पर मर्यादा तोड़ कर चलना, कमती बढ़ती तोलना नापना, सच्चे में कूंठा मिलाकर सच्चा कह कर बेंचना, अपने कुटुम्ब के सिवाय दूसरों के लड़कों व लड़कियों की सगाई मिलाना, विवाहिता या अविवाहिता व्यभिचारिणी स्त्रियों से सम्बन्ध रखना, काम के अंग छोड़ कर अन्य अंगों से काम सेवन करना, काम भावकी तीव्रता रखनी, मकान, भूमि गोवंश, अनाज, चाँदी, सोना, दासीदास, कपड़े, बर्तन का जो जन्म पर्यन्त प्रमाण किया हो उसमें इन पाँच जोड़ में से हर एक में एक को बढ़ा कर दूसरे को घटा लेना ।
इन दोषों को न लगाकर शुद्ध पाँच अणुव्रत पालने चाहिये ।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४२ ) भावार्थ-जो चारों दिशाओं में तीन वर्ष श्रावर्त करे, चार चार प्रणाम करे, काय से ममत्व त्याग खड़ा रहे, खड़गासन या पद्मासन दो श्रासनों में से कोई आसन लगावे, मन, वचन काय को शुद्ध रक्खे तीनों काल वन्दना करके सामायिक करे वह सामायिक प्रतिमा धारी है, दोनों हाथ जोड़े हुए अपने शरीर के बाएं से दाहने की ओर घुमाने को आवर्त कहते हैं।
सामायिक की विधि-संक्षेप से यह है कि किसी एकांत स्थान में जाकर एक श्रासन चटाई, आदि पर पहले पूर्व या उत्तर को मुख करके खड़ा हो, नौ णामोकार मंत्र पढ़कर दंडवत करे व प्रतिज्ञा करे कि जब तक ध्यान करता हूँ व यह श्रासन नहीं छोड़ता हूँ तब तक जो कुछ मेरे पास इस समय शरीर में है इसके सिवाय सर्व पदार्थों का त्याग है व अपने चारों तरफ थोड़ी जमीन और रख कर शेष जमीन का त्याग है फिर उसी दिशा को खड़ा हो नौ या तीन दफे वही मंत्र पढ़े, और तीन आवर्त करे फिर मस्तक मुका कर दोनों, जोड़े हुए हाथ लगावे ऐसा प्रणाम करें, फिर खड़े ही खड़े अपनी दाहनी तरफ पलट कर उसी तरह नौ या तीन दके मंत्र 'पदकर प्रणाम करे। ऐसे ही पीछे व बांई तरफ करके बैठ जावे, फिर सामायिक पाठ पढ़े (जो भाषा का पाठ पुस्तक के अन्त में है) जप करे आत्मा का विचार करे। अन्त में खड़ा हो नौ दफे मंत्र पढ़ कर दंडवत करे, हर दफे ४८ मिनिट सामायिक करे। कारण वश कभी कुछ कम भी कर सकता है।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४४ ) . भावार्थ-जोको अर्थात् अप्राशुक या जीव सहित मूल, फल, शाक, शाखा, करीर (कॉपल), कन्द, फूल और वीज नहीं खाता है वह दया की मूर्ति ही सचित्त त्यागप्रतिमाघारी है । यह आवश्यकता होने पर मात्र शरीर की रक्षार्थ इन वस्तुओं को पकी हुई व छिन्न मिन्न की हुई दशा में खा सकता है। पके फलों का गूदा ले सकता है। व पानी कच्चा न पीकर उष्ण या प्राशुक पीवेगा जो लौंग फुटी हुई डालने से अपना रंग बदल देता है।
(६) छठी श्रेणी-रात्रिमुक्ति त्याग । अन्नं पानं खादा लेद्यं,
नारनाति योविभावर्याम् । सचरात्रि भुक्तिः विरतः ,
सत्वेष्वनु कम्यमान मनाः॥१४२॥ भावार्य-जो जीवों पर दया भाव रखने वाला रात्रि में बन, पानी, मादेकादि खाद्य, व चाटने योग्य चटनी भादि पदार्थों को नहीं खाता है वह रात्रि मुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। __ रात्रि को न खाने का अभ्यास तो पहिली प्रतिमाधारी भी शुरू कर देता है यथा सम्भव जल भी नहीं पीता है परन्तु देशकाल व्यवस्था के होने से यदि वह नहीं बच सके, सो जितना बच सके अपवे को रात्रि के खान-पान से बचावे इस छठे दरजे में आकर तो उसे नियम से न स्वयं खाना-पीना होगा न वह दूसरों को रात्रि के समय खिलाए-पिलाएगा।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
. (७) सातवीं सी-प्राचये प्रतिमा मल वीजमल योनि
गलन्मलंपूति गनि वीभत्सं। परयनङ्ग मनङ्गाद्विरमति
यो ब्रह्मचारी सः ॥१३॥ भावार्थ-जो मल का बीज, मल को उत्पन्न करने वाली, मल प्रवाही, दुर्गन्ध युक्त, लज्जाजनक योनि को देखता हुआ काम सेवन से विरक्त होता है वह ब्रह्मचर्य नाम प्रतिमा का धारी है। यह श्रावक गृहस्थ अपनी सी का भी त्याग करके उदासीन भेष में घर में भी एकान्त में रह सकता है व देशाटन भी कर सकता है।
() आठमी श्रेणी-आरंभ त्याग प्रतिमा सेवा कृषिवाणिज्य प्रमुखा,
दारम्भतो व्युपारमति । प्राणाति पातहेतीर्यो:
सावारम्भ विनिवृतः ॥१४॥ भाषार्थ जो जीव हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापारादि के आरंभ से विरक्त हो जाता है वह प्रारंभ त्याग प्रतिमा का पारी है। सातवें दरजे तक धन कमाने के लिये अपनी अपनी दशा के
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
योग्य उधम करता था। इस दरजे में पाकर क्या पैसा कमाना त्याग देता है जो कुछ जायदाद होती है उसी में सन्तोष करता है।
. () नवमी श्रेणी-परिग्रह त्याग प्रतिमा । वाह्येषु दशसुवस्तुषु ममत्त्व ,
मृत्स्तज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः संतोष परः परिचित्त,
परिग्रहा द्विरतः ॥१४॥ भावार्थ-जो बाहरी क्षेत्र प्रादि दस प्रकार की परिग्रहों से ममता हटा कर अपने स्वरूप में स्थिर व सन्तोषी हो जाता है वह संग्रहीत परिग्रह से विरक्त प्रतिमाधारी है। यह श्रावक अपनी जायदाद को जिसे देना हो दे देता है या दान-धर्म में लगा देता है। अपने लिये कुछ कपड़े व बर्तन रख लेता है। धर्मशाला व एकांत में रहता है। भक्ति से बुलाए जाने पर भोजन जो मिले कर लेता है और रात्रि दिन आत्म-ध्यान के अभ्यास में लगा रहता है व उसके सहकारी शास्त्र पठन आदि कार्यों को करता है।
(१०) दसमी श्रेणी अनुमति त्याग प्रतिमा। अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे ,
वैहिकेसु कर्मसुवा । नास्ति खलुयस्य समधी रनुमति ,
विरतः समन्तव्यः ॥१४६०
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४८ ) अनेक परभोजी हा प अपने पात्र में श्रावक से भोजन लेले फिर
और घरों में जाकर भोजन ले । जहां उदर-पूर्ति तक मिल जावे वहीं प्राशुक पानी ले भोजन करले अपना पात्र स्वयं धो लेवे यह कतरनी या छुरी से बाल लोच कर सकता है।
(२) ऐलक-जो एक लंगोटी मात्र ही रखता है। एक ही घर बैठकर हाथ में जो रक्खा जावे उसे संतोष से जीम लेता है। यह केशों को अपने हाथ से लोच करता है । काठ का कमंडल रखता है।
इन ग्यारह श्रेणियों में आगे की श्रेणी वाला पिछली श्रेणी के चारित्र को छोड़ता नहीं है किन्तु बढ़ाता जाता है। ये दरजे इतने बढ़िया पद्धति से कहे गए हैं कि इनके द्वारा धीरे धीरे एक श्रावक गृहस्थ मुनि या साघु होने की योग्यता पढ़ाता जाता है उधर आत्म ध्यान करने का बल बढ़ता जाता है । हर एक श्रेणी वाले श्रावक को व कम से कम दूसरी श्रेणी से शुद्ध भोजन करना चाहिये जिसमें मांस मध का कोई दोष न लगे । चर्म में रक्खा हुआ घी तेल पानी नहीं लेना चाहिये। मर्यादा का शुद्ध भोजन पान व्यवहार करना चाहिये । इस भारतवर्ष की ऋतु की अपेक्षा भोजन की मर्यादा इस तरह जैनमत के आचरण में वर्ती जा रही है। (१) को रसोई दाल भात आदि की बनने के समय से ६ घंटे तक। (२) पकी रसोई पूरी मुलायम आदि दिन भर रात वासी नहीं। (३) मिठाई, सुहाल आदि २४ घंटे तक। (४) केवल अन्न और घी से बनी मिठाई पिसे हुए आटे की मर्यादा
के समान अर्थात् ७ दिन जाड़े में, ५ दिन गर्मी में ३ दिन वर्षात में।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
(५) बूरा साफ किया हुआ व मेवा घी बूरे के साथ जाड़े में १ मास
गर्मी में १५-दिन ब वर्षात में ७ दिन । (६) दूध दोहने के पीछे तुर्त छान कर औंटा ले वह २४ घंटे कक
तुर्त छानकर ४८ मिनिट के भीतर पी सकता है। (७) दही जमा हुमा २४ घंटे तक, पाचार या मुरब्बा २४ घंटे तक। (८) तेल व घी जहां तक स्वाद न बिगड़े। (८) पानी दोहरे गाढ़े छन्ने से छानकर ४८ मिनिट तक । यदि लौंग
कुटी डाल कर रंग बदला जावे सो ६ घंटे तक, गर्म किया हुना १२ घंटे तक उबाला हुश्रा २४ घंटे तक। मात्र छाना हुआ फिर छान कर काम में आ सकता है।
शुद्ध भोजन पान रक्त शुद्ध बनाता है जिससे बुद्धि की निर्मलता में सहायता मिलती है व रोग नहीं सताते हैं । सदा मनुष्य को ताजा भोजन खाना चाहिये बाजार को दुकानों का व होटलों का भोजन दूध चाय श्रादि लेना योग्य नहीं है । बार बार खाना भो हानिकारक है। खूब भूख लगने पर ही खाना चाहिये। दिन भर में एक दफे अथवा अधिक से अधिक दो दफे भोजन करना बस है। जैसे पहले १०-११ बजे फिर ४-५ बजे-एक से दूसरे भोजन में ६ घंटे का अंतर जरूर रहना चाहिये-रात्रि को मुंह व पेट को पाचन के लिये विश्रान्ति देना उचित है।
साधुओं का व्यवहार धर्म चारित्र - जिनके भाव मात्र आत्म ध्यान और वैराग्य के लिये बहुत पढ़ गये हों उनको साधुओं का चारित्र पालना चाहिये। सनातन जैन
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
मत का मार्ग यही है कि जब श्रावक के चारित्र को ग्यारह श्रेणी तक साधन करले व ऐलक अवस्था में वन शरीर में शीत, उष्ण, दंसमसक श्रादि की बाधा को शांत मन से सहन कर सके तब उसको लंगोटी भी त्याग कर जन्म के बालक के समान सर्व कषाय रहित व काम विकार रहित हो जाना चाहिये । मुनियों का चारित्र तेरह प्रकार का है-जैसा श्री नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती ने द्रव्य संग्रह में कहा हैअसुहादो विणि वित्ती सुहे
पवित्ती य जाण चारित्तं ॥ घद समिदि गुत्तिरुवं
बवहारणयादु जिण भणीयं ॥४॥ भावार्थ-अशुभ से छूट कर शुभ मार्ग में चलना चारित्र है सो व्यवहारनय से पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति रूप कहा यया है
५ महाबत १-अहिंसा-स्थावर (एकेन्द्रिय पृथ्वी श्रादि) उस (वेन्द्रियादि) सर्व प्राणी मात्र की मन बचन काब से रक्षा करनी । राग द्वेष से बच कर भाव अहिंसा पालनी-साधुजन कोई आरंभ इसीलिये नहीं करते हैं।
२-सत्य-मन बचन काय से धर्मानुकूल सत्य हितकारी वचन कहना।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
संबम के लिये रखना व एक आसन से ही सोना बिना देखे करवट न बदलना।
साधु जन नगर बाहर एकांत स्थान पर नगर में ५ दिन व प्राम में १ दिन से अधिक नहीं बसते हैं। वर्ष के मास प्रासाद शुदी १५ से कार्तिक शुदी १५ तक एक स्थल पर ही बिताते हैं।
साधुओं का अधिक समय ध्यान में जाता है। समय बचने पर वे धर्मोपदेश देते हैं व शास्त्रादि रचते हैं।
जैनमत का सनातन मार्ग (निर्गथ ) साधुओं ही का था। सर्व ही तीर्थकर श्री ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी ने नग्न ही तपस्या की थी-प्राचीन मूर्तिये नग्न ही मिलती हैं-बौद्धों की प्राचीन पुस्तकों में नग्न साधुओं का ही वर्णन है-यूनानी इतिहासकारों ने जो महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भारत में आए थे नम जैन साधुओं का ही वर्णन किया है पहले दिगम्बर श्वेताम्बर भेद जैनमत में नहीं थे-जब महाराज चन्द्रगुप्त के समय में सन् ई० से ३२० वर्ष पहले अनुमान मध्य प्रदेश में १२ वर्ष का भयानक दुष्काल पड़ा था तब श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली ने २४००० मुनि समूह को उपदेश दिया था कि दक्षिण में जैन गृहस्य बहुत हैं वहाँ धर्म सघ सकेगा यहाँ न ठहरना चाहिए तब १२००० साधुओं ने तो आशा मान ली-परन्तु शेष ने न मानी वे यहाँ ही ठहर गए दुष्काल के समय चारित्र ढीला हो गया। वे आधा कपड़ा कंधे पर डालने लग गए तब से अर्द्ध कालक मत चला ( भद्रबाहु चरित्र) फिर कई सौ वर्षों बाद उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर लिये तब से श्वेताम्बर भेद
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुमा- उस समय से जो प्राचीन नम्र साधु थे वे अपने को दिगम्बर कहने लगे अर्थात जिनका अम्बर या कपड़ा दिशाही है। .... ___ वास्तव में यदि उस समय विचार किया जाता तो दो भेद करने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि जब श्रावक की ११ प्रतिमाएं कही गई हैं तब ग्यारवी श्रेणी में जो क्षुल्लक बताए गये हैं वेखंड बका सहित होते हैं। वे क्षुल्लक पद में रह कर धर्म साध सकते थे। साधु धर्म का पुराना निर्गय मार्ग जैसा का तैसा रहने देना उचित थाश्वेताम्बरों के शास्त्रों में भी साधुओं के दो भेद बताए हैं (१) जिनकल्पी (२) स्थविर कल्पी इनमें जिन कल्पी को बस रहति नन्न व दूसरे को धन सहित होना लिखा है तथा जिन कल्पी को सब लिखा है-ऐसी दशा में यदि दिगम्बर श्वेताम्बर भेद मिटाना हो तथा एक सनासन जैन मत हा रखना हो तो पक्षपात रहित विद्वान् भाई सनातन जैनमत का ही मार्ग चला सकते हैं जितने श्वेताम्बर साधु हैं उनको क्षुल्लक पद में रख सकते हैं-क्षुल्लक का आचरण बहुत अंश में मिल जाता है। लकड़ी रखने की जरूरत उत्तम क्षमा गुण पालक त्यागियों के लिये नहीं है। न किसी एक घर में भोजन लाने की जरूरत है-कई घर से ले एक घर में जीम लेने से काम चल सकता है। ऐसे त्यागियों के लिये एक दफे ही भोजनपान बस है-दो तीन बार खाना गृहस्थियों का ही काम है। परस्पर भेद रहना उचित नहीं है । यदि विवजन सनातन जैन मत पर दृष्टि डालेंगे तो ये भेद मिट सकते हैं। हम सब को श्री वीर्थकरों का बताया हुआ निश्चय धर्म जो प्रात्मध्यान है उसको साधन करना चाहिये । उसके लिये जो व्यवहार चारित्र
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्बारह प्रतिमा रूप वाकिर मुनिका चारित्र ओ बसाया गया है वह क्रम से उन्नति करते हुए बहुत ही सुन्दर व बुद्धि को माननीय मालकता है-प्रतिमाओं के धारी श्रावकों का प्रचार पढ़ना चाहियेएकदम किसी को साधु होना उचित नहीं है-सुगम मार्ग यही है कि ग्यारह श्रेणियों के द्वारा धीरे धीरे उन्नति करके साधुहो-यदि कोई विशेष शक्ति शाली हो तो मना नहीं है परन्तु सीढ़ी से चलने पर गिरने का खटका नहीं है । सनातन जैन का मार्ग कंटक रहित सुखप्रद है
मुक्ति व उसका मार्ग जैसा मोक्ष तत्व में कहा जा चुका है-जीव के शुद्ध होने का नाम मुक्ति है - मुक्ति की दशा में जीव अपने शुद्धस्वभाव में हो जाता है-सर्वश सर्वदर्शी हो कर वीतरागी रहता हुआ अपने प्रास्मा में तिष्टा हुआ श्रात्मानन्द के अमृत रस को निरन्तर स्वाद लिया करता है-पूर्ण स्वाधीनता में पहुँच जाता है-इस मुक्ति का उपाय निश्चय धर्म है जो रत्नत्रय स्वरूप प्रात्मा का ध्यान है-प्रात्म ज्ञान में थिरता आत्म ध्यान है । इस ध्यान में जो वीतराग या शांत भाव होता है वह कर्म बंध को काट देखा है प नए कर्मों के बंध को रोकता है-आत्म ध्यान से ही जीव मुक्ति पाता है। श्रात्म ध्यान को उत्तमता बिना साधु पद के नहीं हो सत्तम है-इस लिये साधु पद धारे बिना कोई मुक्ति का लाभ नहीं कर सक्ता है, गृहस्थ आत्मध्यान के अभ्यास से साधु पद की योग्यता पैदा कर सका है। यह जैन सिद्धान्त है जैसा श्री पूज्यपाद स्वामीने इष्टो पदेश में कहा है
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
परः परस्ततो दुःखमात्मैवात्मा ततः सुख। अतएव महात्मानस्तान्नि मित्तंकृतोद्यमाः NAM अविद्वान् पुद्गल द्रव्ययोऽभिनंदति तस्य तत् । नज्ञातु जंतोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुंचति ॥६॥ आत्मानुष्ठान निष्ठस्य व्यवहार वहिः स्थितः। जायते परमानन्दः काश्चि द्योगेन योगिनः॥gn. आनन्दो निर्दहत्युद्धं कमै धनमनारतं । नचासौ खिद्यते योगी वहि दुखेष्व चेतनः॥८॥ अविवाभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद् द्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥४६॥ जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसोतत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु स्यैव विरतर ॥५॥
भावार्थ-आत्मा के सिवाय पर पदार्थ है सो अपने से भिन्न है उसमें लीन होने से दुःख है । आस्मा स्वयं शुद्ध प्रात्मा हैइसमें लीन न होने से सुख है । इसीलिये महात्मा जन इस आत्मा के ध्यान का उद्यम करते हैं । जिस से सुख हो ॥४५॥ प्रशानी जीव शरीरादि पुद्गल द्रव्यों को प्यार करता है इसलिये
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह पुद्गल द्रव्य देव, मनुष्य, पशु या नरक इन चारों गलियों में जोव कर संग नहीं छोड़ता है ॥४६॥ जो शरीर आदि बाहरी पदार्थों का मोह त्याग कर शुद्ध प्रात्मा में लीन होते हैं उन योगियों को योगाम्यास के द्वारा कोई अपूर्व परमानन्द प्राप्त होता है ॥४०॥ यहीं आनन्द निरंतर बहुत अधिक कर्म रूपी ईंधन को जला देता है । इस आनन्द में मग्मयोगी बाहिरी दुःखों के पड़ने पर भी उन पर ध्यान न देता हुआ खेदित नहीं होता है।।४८ प्रज्ञान से दूर महानशान मई ज्योति ही उत्कृष्ट ज्योति है जो मुक्ति चाहते हैं उनको उसी के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये उसी की इच्छा करनी चाहिये व उसी का अनुभव करना चाहिये ॥४९।। जैनमत के तत्वों का सार यह है कि ऐसा समझले कि जीव जुदा है और पुद्गल जुदा है और जो कुछ कहना है वह इसी का विस्तार है ॥५०॥ अपने, आत्मा को शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध अनुभव करना यही सभी सुख शांति का कर्मों के बंध काटने का उपाय हैयही बात हर एक गृहस्थ वा साधु को समझ लेनी चाहिये और इसी हेतु से ही व्यवहार चारित्र अपनी अपनी श्रेणी के योग्य पालना चाहिये।
लौकिक व्यवहार जैनमत आत्मा की शुद्धि का मसाला है-यह मसाला बना रहे फिर कैसा भी खौकिक व्यवहार अर्थ ( पैसा कमाना ) व काम (इन्द्रिय भोग व सन्तान प्राप्ति ) पुरुषार्थ के लिये किया जाये वह सब मानने योग्य है मिन्न भिन्न क्षेत्र व काल व जीवों के भावों
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
के कारण लौकिक व्यवहार भी मिन भिन्न प्रकार का हो सकता है। एक जेनाचार्य ने बहुत ही ठीक कहा हैसर्वमेवहि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त हानिर्न यत्र न व्रत दूषणं ।
भावार्थ-जिसमें जैनमत के तत्वों की श्रद्धा में हानि न हो व अपने किये हुए नियम तथा व्रतों में दोष न लगे ऐसी सर्व ही लौकिक विधि जैनों को माननीय है।
खाना पीना, कपड़ा पहनना, विवाह शादी करना आदि सब लौकिक श्राचार देशकालानुसार हुआ करता है-यदि लंडन में कोई कोट पतलून पहने व हिन्दुस्तान में पायजामा या जामा पहने इसमें कोई धर्म का सम्बन्ध नहीं है । धर्म का सम्बन्ध इतना ही है कि वन जितने अधिक दया भाव से व कम हिंसा से तम्यार हों उतना ठीक है । यदि हाथ के कते रूई के सूत के हाथ के बने हुए कपड़े हों तो मिल के कपड़ों से अच्छे हैं-चमड़े की वस्तुएं न काम में लाई जावें तो ठीक है क्योंकि चमड़े व हही के कारण पशुओं का वध होता-गृहस्पों को खान-पान व वस्त्र के व्यवहार में दया माव पर अवश्य ध्यान देना चाहिये-अपनी दोनों जरूरतें पूरी हो जावें और दया धर्म का यथा शक्य पालन हो यह ध्यान गृहस्थों को रखना चाहिये-खानपान में शरीर की स्वच्छता पर भी ध्यान देना योग्य है-हाथ पैर धो शुख पर्स पहन शुद्ध स्थान में खाना उपचार का चिन्ह है। जैसे तैसे खाना स्वच्छता बशरीर स्वास्थ्य का वाधक है क्योंकि धूल के भीतर घूमने वाले बहुत रोगिष्ट
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५८ ) जंतु व अशुद्ध कपड़ों के द्वारा रोगी जन्तु भोजन में न भाये यह सम्हाल जरूरी है जैन शास्त्रों से यह पता चलता है कि ऋषभदेव भगवान ने इस भरत क्षेत्र के आर्य खंड में उस समय के योग्य खान पानादि विवाहादि आजीविकादि की रीतियें प्रचलित की जिनसे प्रजा पाकुलता रहिव अपना निर्वाह कर सके-धर्म का उपदेश तो तीर्थकर भगवान उस समय तक देते नहीं है जब तक उनको सर्वज्ञ पद का लाम न हो जाये । उस समय ऋषभदेव ने प्रजा के सुख से निर्वाह के लिये तीन वर्ण स्थापित किये-जिन लोगों को देश की रक्षा के योग्य मजबूत देखा उनको क्षत्रिय वर्ण में, जिनको कृषिभ्यापारादि के योग्य देखा उनको वैश्य वर्ण में, जिनको शिल्प व सेवादि कार्य के योग्य देखा उनको शूद्र वर्ण में स्थापित किया। उन्होंने यह आज्ञा दी कि हरएक वर्ण वाले अपनी अपनी आजीविका करें यदि काई दूसरे की करेगा तो दंड का पात्र होगा। यह आशा इसीलिये दी कि वर्ण व्यवस्था संगठित हो जावे । सन्तान प्रति सन्तान एक ही प्रकार का व्यवसाय कुटुम्ब के भावों में उस व्यवसाय की सुगमता व दक्षता स्थापित कर देता है । तथा विवाह के लिये यह उचित समझा कि हर एक वर्ण वाला अपने अपने २ वर्ण में विवाह करे यदि कभी आवश्यकता हो तो क्षत्रिय वैश्य तथा शूद की, वैश्य शूद्र की कन्या विवाह सकता है। जब ऋषभदेवजी केवल शानी हो चुके और जैन धर्म का प्रचार जनता में फैल गया तब ऋषभदेव के पुत्र ने यह समझ कर कि कोई समाज ऐसाभी स्थापित करना चाहिये कि जो लोगों को धर्म में लगावे, उनको विद्या पढ़ावे, श्राप संतोष से रह कर धर्म साधन करे व जो अन्य भक्ति से
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
में हर एक वरण में उपजातियां नामांकित की गई और वे मिन मिक हो गई। तब एक उपजाति अपनी ही उपवाति में सम्बन्ध करनेलगीउस समय के देश व काल को देखकर समाज ने ऐसा ही उचित समझा होगा । वर्तमान में इस विमिमता से यदि हानियें दीख पड़ती हैं तो राजा को या समाज को अधिकार है कि वे अवस्था को पलट दें और यह नियम कर दें कि एक वर्ण वाली सर्व उपजातियां परस्पर सम्बन्ध कर सकती हैं। जिसमें समाज सुखी रहे, कष्ट न पावे, संख्या भी न कम हो आचरण भी श्रद्धा व व्रतों पर स्थिर रहै वैसी व्यवस्था करना लौकिक जनों का लौकिक व्यवहार है - राजा व समाज को यह भी अधिकार है कि जिस किसी ने कोई दोष करके अपने कुल को अशुद्ध किया हो उसको प्रायश्चित देकर शुद्ध करदे जैसा महा पुराण में श्री जिनसेनाचार्य ने नीचे के श्लोक से प्रगट किया हैकुताश्चित् कारणाद्यस्य कुलं सं प्राप्त दूषणं । सोऽपि राजादि संमत्या शोधयेत्स्वकुलं यदा॥ तदास्यो पनयाहत्त्वं पुत्र पोत्रादि संततौ। न निषिद हि दोक्षाहकुले चदेस्य पूर्वजाः ॥
पर्व ४० कोक १६८-१६९ भावार्थ-यदि किसी कारण से किसी के कुल में दूषण लग जावे तो वह भी राजा आदि की सम्मति से तब अपने कुल को शुद्ध करले पश्चात् उसके पुत्र, पौत्रादि उपनयन (जनेऊ) आदि संस्कार
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
वह सम्बन्ध कर सके वर्ण पाकर वह अन्य समान वर्णवाले भावको के समान हो जाता हैइत्युक्त्वैनं समाश्वास्य वर्ष लाभेन युज्यते। विधिवत्सोपित लब्ध्वा याति समकक्षताम् ॥१॥
भावार्थ-समाज नए दीक्षित की प्रशंसा करके उसको नए वर्णमें स्थापित करे वह विधि के अनुसार वर्ण को पाकर समान कक्षा में हो जाता है। आजकल जैनी गृहस्थ नए दीक्षित जैनी के साथ सम्बंध रखाने में अपनी जाति का अभिमान रूपी सम्यक्त में बाधक मेव करके मनाई रखते हैं। सो यह उनका मिथ्यात्व है व जिन श्राशा के सनातनमागे का तिरस्कार करना है। उचित है कि जैन धर्म को जगत में फैलाकर सुमार्ग पर जीवों को लगाया जावे । उनको सम्यक्ती और प्रती बनाया जावे । तीर्थकरों ने और बड़े २ भाचार्यों ने इसी कार्य को बड़ा भारी महत्व दिया था। इस पंचम पल में भी खंडेलवाल ओसवाल जाति नई दीक्षित जैन जाति है यह सर्व मान्य है। इसलिये वृथा मद को न करके उचित है कि देश परदेश में जैन धर्म का उपदेश प्रचार में लाया जावे और जो भाई व बहन श्रद्धावान हो कर शराब व मांस छोड़ दे उनको जैनी बना लिया जावे । फिर उनकी आजीविका देखकर यदि वे सिपाही के योग्य हों तो क्षत्रिय, कृषि, मसिव वाणिज्य के योग्य हों तो वैश्यः धर्ममात्र साधन के योग्य हों तो ब्राह्मण; शिल्प कारीगरी व सेवा कर्म करने के योग्य हों उनको शूद्र बना लेना चाहिये । और तीन वर्गों में परस्पर खानपान व विवाह सम्बंधी जारी कर
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________ संभवात् तथा जातीय कानां दीक्षार्हस्के प्रतिषेधाभावात १९शा ....भावार्थ-म्लेच्छ भूमि में पैदा होने वाले मनुष्यों को मुनि का संयम कैसे होगा यह शंका न करनी उचित है। जब चक्रवर्ती दिग्विजय करने आते हैं तब उनके साथ जो म्लेच्छ खंड के राजा लोग पाते हैं उनके साथ चक्रवर्ती आदि का विवाह संबन्ध हो जाता है, उनको संयम लेने का विरोध नहीं है। अथवा उनकी कन्याओं को नो पक्रवर्ती व अन्य विवाह लाते हैं उनके गर्भ से पैदा हुए अयपि माता के पन से म्लेच्छ हैं समापि संयम के अधिकारी हैं। ऐसे उत्पन्न होने वालों को दीक्षा के योग माना है, निषेध नहीं है। . जैन लोगों को चाहिये कि उन आज्ञाओं को हितकारी मानकर देश परदेश में उपदेश का प्रचार करके लाखों व करोड़ों को जैनी बनाकर उनको दया धमी बना डालें, उनसे अन्याय व अभक्ष्य का त्याग करावें जिससे सर्व प्रजा सुखी हों। - विवाह कन्या या पुत्र का कछ करना व उसमें क्या क्या रस्म करना यह सब लौकिक व्यवहार है। जिसमें वर वधु की तन्दुरुस्ती अच्छी रहे व उनमें योग्य वीर पुत्र पुत्री को विवाहते ही उत्पन्न करने की पात्रता हो तब उनका सम्बन्ध करत उचित है / वाग्भट्ट के अनुसार कन्या की आयु 16 वर्ष की और व वर की आयु 20 वर्ष होनी उचित है। गृहस्थों का कर्तव्य है कि पहले पुत्र पुत्री को धार्मिक व लौकिक विद्या से भाषित करें फिर युवावय में उनकी लग्न करें। प्रौढ़ कन्या प्रौढ़ कुमार को ही विवाही जावे जिसमें सन्तान की वृद्धि हो :