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________________ हुमा- उस समय से जो प्राचीन नम्र साधु थे वे अपने को दिगम्बर कहने लगे अर्थात जिनका अम्बर या कपड़ा दिशाही है। .... ___ वास्तव में यदि उस समय विचार किया जाता तो दो भेद करने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि जब श्रावक की ११ प्रतिमाएं कही गई हैं तब ग्यारवी श्रेणी में जो क्षुल्लक बताए गये हैं वेखंड बका सहित होते हैं। वे क्षुल्लक पद में रह कर धर्म साध सकते थे। साधु धर्म का पुराना निर्गय मार्ग जैसा का तैसा रहने देना उचित थाश्वेताम्बरों के शास्त्रों में भी साधुओं के दो भेद बताए हैं (१) जिनकल्पी (२) स्थविर कल्पी इनमें जिन कल्पी को बस रहति नन्न व दूसरे को धन सहित होना लिखा है तथा जिन कल्पी को सब लिखा है-ऐसी दशा में यदि दिगम्बर श्वेताम्बर भेद मिटाना हो तथा एक सनासन जैन मत हा रखना हो तो पक्षपात रहित विद्वान् भाई सनातन जैनमत का ही मार्ग चला सकते हैं जितने श्वेताम्बर साधु हैं उनको क्षुल्लक पद में रख सकते हैं-क्षुल्लक का आचरण बहुत अंश में मिल जाता है। लकड़ी रखने की जरूरत उत्तम क्षमा गुण पालक त्यागियों के लिये नहीं है। न किसी एक घर में भोजन लाने की जरूरत है-कई घर से ले एक घर में जीम लेने से काम चल सकता है। ऐसे त्यागियों के लिये एक दफे ही भोजनपान बस है-दो तीन बार खाना गृहस्थियों का ही काम है। परस्पर भेद रहना उचित नहीं है । यदि विवजन सनातन जैन मत पर दृष्टि डालेंगे तो ये भेद मिट सकते हैं। हम सब को श्री वीर्थकरों का बताया हुआ निश्चय धर्म जो प्रात्मध्यान है उसको साधन करना चाहिये । उसके लिये जो व्यवहार चारित्र
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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