________________
ग्बारह प्रतिमा रूप वाकिर मुनिका चारित्र ओ बसाया गया है वह क्रम से उन्नति करते हुए बहुत ही सुन्दर व बुद्धि को माननीय मालकता है-प्रतिमाओं के धारी श्रावकों का प्रचार पढ़ना चाहियेएकदम किसी को साधु होना उचित नहीं है-सुगम मार्ग यही है कि ग्यारह श्रेणियों के द्वारा धीरे धीरे उन्नति करके साधुहो-यदि कोई विशेष शक्ति शाली हो तो मना नहीं है परन्तु सीढ़ी से चलने पर गिरने का खटका नहीं है । सनातन जैन का मार्ग कंटक रहित सुखप्रद है
मुक्ति व उसका मार्ग जैसा मोक्ष तत्व में कहा जा चुका है-जीव के शुद्ध होने का नाम मुक्ति है - मुक्ति की दशा में जीव अपने शुद्धस्वभाव में हो जाता है-सर्वश सर्वदर्शी हो कर वीतरागी रहता हुआ अपने प्रास्मा में तिष्टा हुआ श्रात्मानन्द के अमृत रस को निरन्तर स्वाद लिया करता है-पूर्ण स्वाधीनता में पहुँच जाता है-इस मुक्ति का उपाय निश्चय धर्म है जो रत्नत्रय स्वरूप प्रात्मा का ध्यान है-प्रात्म ज्ञान में थिरता आत्म ध्यान है । इस ध्यान में जो वीतराग या शांत भाव होता है वह कर्म बंध को काट देखा है प नए कर्मों के बंध को रोकता है-आत्म ध्यान से ही जीव मुक्ति पाता है। श्रात्म ध्यान को उत्तमता बिना साधु पद के नहीं हो सत्तम है-इस लिये साधु पद धारे बिना कोई मुक्ति का लाभ नहीं कर सक्ता है, गृहस्थ आत्मध्यान के अभ्यास से साधु पद की योग्यता पैदा कर सका है। यह जैन सिद्धान्त है जैसा श्री पूज्यपाद स्वामीने इष्टो पदेश में कहा है