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कमी कभी विचारता रहे कि मैं शुद्ध मातादृष्टा पानन्दमई एक परम पदार्थ हूँ-इसी प्रकार की भावना बारबार करने से चित्त कुछ कुछ थमने लग जायगा और प्याता को ध्यान का लाभ पल विपल के लिये होने लग जायगा । आत्म ज्ञान ही आत्म ध्यान का साधक है ऐसा ही श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार कलश में कहा है:सिद्धान्तोयमुदात्त चित्त,
चरितै मेक्षिार्थिभिः सेव्यतां । शुद्धं चिन्मय मेकमेव परमं,
ज्योतिः सदै वास्म्यहं । एते ये उस मुल्ल सन्ति,
विविधा भावाः पृथग्लक्षण । स्नेह नास्मि यतोत्र,
ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥६॥ भावार्य-सिद्धान्त यह है जिसे निर्मल चारित्रधारी मोक्ष के चाहने वालों को सेवना चाहिये कि मैं सदा ही एक शुद्ध चैतन्यमई उत्कृष्ट शान ज्योति हूँ और जो कुछ रागादि भाव झलक रहे हैं के सब मुझसे मित्र हैं वे मेरे रूप नहीं है। क्योंकि वे सब मेरे शुद्ध स्वभाव से जुदे पर द्रब्य हैं। ध्यान के लिये एकान्त स्थान, मन, वचन, कायकी शुद्धि, चित्त की समाधानता, आसन जिससे शरीर