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वह सम्बन्ध कर सके वर्ण पाकर वह अन्य समान वर्णवाले भावको के समान हो जाता हैइत्युक्त्वैनं समाश्वास्य वर्ष लाभेन युज्यते। विधिवत्सोपित लब्ध्वा याति समकक्षताम् ॥१॥
भावार्थ-समाज नए दीक्षित की प्रशंसा करके उसको नए वर्णमें स्थापित करे वह विधि के अनुसार वर्ण को पाकर समान कक्षा में हो जाता है। आजकल जैनी गृहस्थ नए दीक्षित जैनी के साथ सम्बंध रखाने में अपनी जाति का अभिमान रूपी सम्यक्त में बाधक मेव करके मनाई रखते हैं। सो यह उनका मिथ्यात्व है व जिन श्राशा के सनातनमागे का तिरस्कार करना है। उचित है कि जैन धर्म को जगत में फैलाकर सुमार्ग पर जीवों को लगाया जावे । उनको सम्यक्ती और प्रती बनाया जावे । तीर्थकरों ने और बड़े २ भाचार्यों ने इसी कार्य को बड़ा भारी महत्व दिया था। इस पंचम पल में भी खंडेलवाल ओसवाल जाति नई दीक्षित जैन जाति है यह सर्व मान्य है। इसलिये वृथा मद को न करके उचित है कि देश परदेश में जैन धर्म का उपदेश प्रचार में लाया जावे और जो भाई व बहन श्रद्धावान हो कर शराब व मांस छोड़ दे उनको जैनी बना लिया जावे । फिर उनकी आजीविका देखकर यदि वे सिपाही के योग्य हों तो क्षत्रिय, कृषि, मसिव वाणिज्य के योग्य हों तो वैश्यः धर्ममात्र साधन के योग्य हों तो ब्राह्मण; शिल्प कारीगरी व सेवा कर्म करने के योग्य हों उनको शूद्र बना लेना चाहिये । और तीन वर्गों में परस्पर खानपान व विवाह सम्बंधी जारी कर