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के कारण लौकिक व्यवहार भी मिन भिन्न प्रकार का हो सकता है। एक जेनाचार्य ने बहुत ही ठीक कहा हैसर्वमेवहि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त हानिर्न यत्र न व्रत दूषणं ।
भावार्थ-जिसमें जैनमत के तत्वों की श्रद्धा में हानि न हो व अपने किये हुए नियम तथा व्रतों में दोष न लगे ऐसी सर्व ही लौकिक विधि जैनों को माननीय है।
खाना पीना, कपड़ा पहनना, विवाह शादी करना आदि सब लौकिक श्राचार देशकालानुसार हुआ करता है-यदि लंडन में कोई कोट पतलून पहने व हिन्दुस्तान में पायजामा या जामा पहने इसमें कोई धर्म का सम्बन्ध नहीं है । धर्म का सम्बन्ध इतना ही है कि वन जितने अधिक दया भाव से व कम हिंसा से तम्यार हों उतना ठीक है । यदि हाथ के कते रूई के सूत के हाथ के बने हुए कपड़े हों तो मिल के कपड़ों से अच्छे हैं-चमड़े की वस्तुएं न काम में लाई जावें तो ठीक है क्योंकि चमड़े व हही के कारण पशुओं का वध होता-गृहस्पों को खान-पान व वस्त्र के व्यवहार में दया माव पर अवश्य ध्यान देना चाहिये-अपनी दोनों जरूरतें पूरी हो जावें और दया धर्म का यथा शक्य पालन हो यह ध्यान गृहस्थों को रखना चाहिये-खानपान में शरीर की स्वच्छता पर भी ध्यान देना योग्य है-हाथ पैर धो शुख पर्स पहन शुद्ध स्थान में खाना उपचार का चिन्ह है। जैसे तैसे खाना स्वच्छता बशरीर स्वास्थ्य का वाधक है क्योंकि धूल के भीतर घूमने वाले बहुत रोगिष्ट