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( २२ ) जैनियों में सात तत्त्व । जैनियों में सात तत्त्व व्यवहारनय से प्रात्मा की अशुद्ध अवस्था को समझाने व अशुद्ध से शुद्ध होने के उपाय बताने के लिए बताए
. (१) जीव और (२) अजीव तत्त्वमेछ:मूलद्रव्यगर्भित हैं जिनको पहले बताया जा चुका है-इन्हीं में पुद्गल द्रव्य के बने हुए कार्मणस्कंध बहुत सूक्ष्म सर्व जगह व्यापी हैं। इनहीं से जीवों का कार्मण देह या पुण्य पापमई कारणदेह निरन्तर बनता रहा है। इस तरह जीव और अजीव कर्म बंध इन दोनों के सम्बन्ध का नाम संसार है तथा इन दोनों के छूटने का नाम मोक्ष है।
" (३) आश्रयतत्त्व बताता है कि मन वचन काय के हिलने से तथा मिथ्या श्रद्धान, हिंसादि भाव, व क्रोधादि भावों के निमिच से
आत्मा सकंप होता है तब चारों तरफ के कार्मणस्कंध आ जाते हैं। जिन भावों से कर्म आते हैं उनको भावानव और कर्मों के आने को द्रव्यानक कहते हैं।
(४) बंधतत्व बताता है कि वे कर्म आकर आत्मा के क्रोधादि भावों के निमित्त से किसी काल की मर्यादा को लेकर पुराने कार्मण शरीर के साथ बंध जाते हैं। जिन भावों से बंधते हैं उनको भाव गंध व कर्म बंध को द्रव्य बंध कहते हैं। . . . (५) संवरतत्त्व-कर्मस्कंधों को रोकने के लिये जिन भावों से कर्म आते हैं उनसे विरोधी भावों को करने से आते हुए कर्म रुक जाते हैं। जैसे मिथ्याश्रद्धान का विरोधी सच्चा श्रद्धान है, हिंसादि