Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 46
________________ योग्य उधम करता था। इस दरजे में पाकर क्या पैसा कमाना त्याग देता है जो कुछ जायदाद होती है उसी में सन्तोष करता है। . () नवमी श्रेणी-परिग्रह त्याग प्रतिमा । वाह्येषु दशसुवस्तुषु ममत्त्व , मृत्स्तज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः संतोष परः परिचित्त, परिग्रहा द्विरतः ॥१४॥ भावार्थ-जो बाहरी क्षेत्र प्रादि दस प्रकार की परिग्रहों से ममता हटा कर अपने स्वरूप में स्थिर व सन्तोषी हो जाता है वह संग्रहीत परिग्रह से विरक्त प्रतिमाधारी है। यह श्रावक अपनी जायदाद को जिसे देना हो दे देता है या दान-धर्म में लगा देता है। अपने लिये कुछ कपड़े व बर्तन रख लेता है। धर्मशाला व एकांत में रहता है। भक्ति से बुलाए जाने पर भोजन जो मिले कर लेता है और रात्रि दिन आत्म-ध्यान के अभ्यास में लगा रहता है व उसके सहकारी शास्त्र पठन आदि कार्यों को करता है। (१०) दसमी श्रेणी अनुमति त्याग प्रतिमा। अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे , वैहिकेसु कर्मसुवा । नास्ति खलुयस्य समधी रनुमति , विरतः समन्तव्यः ॥१४६०

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