Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 49
________________ मत का मार्ग यही है कि जब श्रावक के चारित्र को ग्यारह श्रेणी तक साधन करले व ऐलक अवस्था में वन शरीर में शीत, उष्ण, दंसमसक श्रादि की बाधा को शांत मन से सहन कर सके तब उसको लंगोटी भी त्याग कर जन्म के बालक के समान सर्व कषाय रहित व काम विकार रहित हो जाना चाहिये । मुनियों का चारित्र तेरह प्रकार का है-जैसा श्री नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती ने द्रव्य संग्रह में कहा हैअसुहादो विणि वित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ॥ घद समिदि गुत्तिरुवं बवहारणयादु जिण भणीयं ॥४॥ भावार्थ-अशुभ से छूट कर शुभ मार्ग में चलना चारित्र है सो व्यवहारनय से पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति रूप कहा यया है ५ महाबत १-अहिंसा-स्थावर (एकेन्द्रिय पृथ्वी श्रादि) उस (वेन्द्रियादि) सर्व प्राणी मात्र की मन बचन काब से रक्षा करनी । राग द्वेष से बच कर भाव अहिंसा पालनी-साधुजन कोई आरंभ इसीलिये नहीं करते हैं। २-सत्य-मन बचन काय से धर्मानुकूल सत्य हितकारी वचन कहना।

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