Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 54
________________ यह पुद्गल द्रव्य देव, मनुष्य, पशु या नरक इन चारों गलियों में जोव कर संग नहीं छोड़ता है ॥४६॥ जो शरीर आदि बाहरी पदार्थों का मोह त्याग कर शुद्ध प्रात्मा में लीन होते हैं उन योगियों को योगाम्यास के द्वारा कोई अपूर्व परमानन्द प्राप्त होता है ॥४०॥ यहीं आनन्द निरंतर बहुत अधिक कर्म रूपी ईंधन को जला देता है । इस आनन्द में मग्मयोगी बाहिरी दुःखों के पड़ने पर भी उन पर ध्यान न देता हुआ खेदित नहीं होता है।।४८ प्रज्ञान से दूर महानशान मई ज्योति ही उत्कृष्ट ज्योति है जो मुक्ति चाहते हैं उनको उसी के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये उसी की इच्छा करनी चाहिये व उसी का अनुभव करना चाहिये ॥४९।। जैनमत के तत्वों का सार यह है कि ऐसा समझले कि जीव जुदा है और पुद्गल जुदा है और जो कुछ कहना है वह इसी का विस्तार है ॥५०॥ अपने, आत्मा को शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध अनुभव करना यही सभी सुख शांति का कर्मों के बंध काटने का उपाय हैयही बात हर एक गृहस्थ वा साधु को समझ लेनी चाहिये और इसी हेतु से ही व्यवहार चारित्र अपनी अपनी श्रेणी के योग्य पालना चाहिये। लौकिक व्यवहार जैनमत आत्मा की शुद्धि का मसाला है-यह मसाला बना रहे फिर कैसा भी खौकिक व्यवहार अर्थ ( पैसा कमाना ) व काम (इन्द्रिय भोग व सन्तान प्राप्ति ) पुरुषार्थ के लिये किया जाये वह सब मानने योग्य है मिन्न भिन्न क्षेत्र व काल व जीवों के भावों

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