Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ . (७) सातवीं सी-प्राचये प्रतिमा मल वीजमल योनि गलन्मलंपूति गनि वीभत्सं। परयनङ्ग मनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥१३॥ भावार्थ-जो मल का बीज, मल को उत्पन्न करने वाली, मल प्रवाही, दुर्गन्ध युक्त, लज्जाजनक योनि को देखता हुआ काम सेवन से विरक्त होता है वह ब्रह्मचर्य नाम प्रतिमा का धारी है। यह श्रावक गृहस्थ अपनी सी का भी त्याग करके उदासीन भेष में घर में भी एकान्त में रह सकता है व देशाटन भी कर सकता है। () आठमी श्रेणी-आरंभ त्याग प्रतिमा सेवा कृषिवाणिज्य प्रमुखा, दारम्भतो व्युपारमति । प्राणाति पातहेतीर्यो: सावारम्भ विनिवृतः ॥१४॥ भाषार्थ जो जीव हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापारादि के आरंभ से विरक्त हो जाता है वह प्रारंभ त्याग प्रतिमा का पारी है। सातवें दरजे तक धन कमाने के लिये अपनी अपनी दशा के

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59