Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 42
________________ ४०) धारयते निःशल्योयोऽसौव्रतिनांमतोव्रतिकः ॥ १३८ ॥ भावार्थ - जो मायाचार, मिथ्या भाग व निदान ( भोगांकाक्षा ) इन तीन शल्य या कांटों से रहित हो, अतिचार ( दोष ) रहित श्रहिंसादि पाँच अणुव्रतों को पालने वाला हो, व सात शील को धारण करता हो, यह आत्मा व्रतियों के भीतर व्रत प्रतिमा वाला कहा गया है। पाँच श्रहिंसादि श्रणुव्रतों के अतिचार ये हैं जैसे क्रोधादि वश बाँधना, मारना, छेदना, अति बोझा लादना, अनपान रोकना, मिथ्या उपदेश देना, गुप्त स्त्री पुरुषों की बात कहना, झूठा लेख लिखना, अमानत को झूठ कह कर ले लेना, गुप्त सम्मति को प्रगट कर देना, चोरी का उपाय बताना, ऐसा माल लेना, राज्य विरुद्ध होने पर मर्यादा तोड़ कर चलना, कमती बढ़ती तोलना नापना, सच्चे में कूंठा मिलाकर सच्चा कह कर बेंचना, अपने कुटुम्ब के सिवाय दूसरों के लड़कों व लड़कियों की सगाई मिलाना, विवाहिता या अविवाहिता व्यभिचारिणी स्त्रियों से सम्बन्ध रखना, काम के अंग छोड़ कर अन्य अंगों से काम सेवन करना, काम भावकी तीव्रता रखनी, मकान, भूमि गोवंश, अनाज, चाँदी, सोना, दासीदास, कपड़े, बर्तन का जो जन्म पर्यन्त प्रमाण किया हो उसमें इन पाँच जोड़ में से हर एक में एक को बढ़ा कर दूसरे को घटा लेना । इन दोषों को न लगाकर शुद्ध पाँच अणुव्रत पालने चाहिये ।

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