Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 21
________________ भदत्थमस्सिदो खलु सम्मा दिट्ठी हवदि जीवो ॥१३॥ भावार्थ-व्यवहारनय अभूतार्थ है अर्थात् जैसा पदार्थ असल में है वैसा नहीं बसाता है-उसकी अन्य प्रकार की दशाएं बताता है, अर्थात् उसके अनेक भेषों को समझाता है । जब कि शुद्ध नय या निश्चय नय सत्यार्थ है क्योंकि साचे असली पदार्थ को बताने वाला है ऐसा उपदेश किया गया है। असल में जो जीव इस सत्यार्थ निश्चय नय का आश्रय करता है अर्थात् असली स्वभाव पर ध्यान लगा कर आत्मा का अनुभव करता है वही सम्यग्दृष्टि जीव है। ___ श्रात्मा शुद्ध स्वयं कहता है कि (अतति जानाति इस आत्मा) कि वह एक जाननेवाला पदार्थ है। हमारे भीतर बान शक्ति काम कर रही है यह बात हम अच्छी तरह जान रहे हैं हम शरीर से छू कर गर्म, ठंढा आदि, जबान से चाखकर मीठा खट्टा आदि, नांक से सूंघकर सुगंध दुर्गध आदि, आँख से देखकर सफेद पीला श्रादि, कान से सुनकर सुखर दुःखर आदि का शान करते हैं। जब तक कोई जिन्दा कहलाता है तब ही तक इन पांचों इन्द्रियों के द्वारा शान होता है। मुरदा शरीर इन्द्रियों के आकार रखने पर भी नहीं जान सकता है। क्योंकि उस शरीर में से ज्ञान शक्ति को रखनेवाला शानी आत्माचल दिया है। __आत्मा जड़ अचेतन पदार्थों से एकजुदा चेतनामई पदार्थ है, जो कोई ऐसा मानते हैं कि जड़परमाणुओं के विकाश से चेतन शक्ति

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