Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 34
________________ ( .३० ) पाहिए-जैसे पहले कहा जा चुका है अपने शरीर के भीतर ही अपने आत्मा को निर्मल जल के समान पवित्र विचार कर उसमें दुबकी लगानी चाहिये। . इसके निरन्तर अभ्यास से प्रात्मध्यान जमता चला जायगा । (५) संयम-मन व इन्द्रियों को वश में रख कर, अन्याय सेवन व अभक्ष्य भोजन से बचना चाहिये तथा दयापूर्वक जगत में व्यवहार करना चाहिये। (६) दान-दूसरों के उपकार के लिये आहार, औषधि, विद्या व अभयदान यथासंभव रोज करना चाहिये । परोपकार से चित्त कोमल व उदार होता है । संयम और दान आत्मभ्यान में सहायक हैं। . __इन छः कमों को करना उचित है ऐसा विश्वास रखते हुए यदि किसी गृहस्थ से कोई कर्म कभी किसी लाचारी से न हो सके तो कोई दोष नहीं है। किन्तु छहों कमों के करने से जो लाभ होता उसमें मात्र कमी रह गई है । यदि कोई ऐसी स्थिति में है कि सामायिक व स्वाध्याय आदि तो करता है परन्तु दर्शन व देव पूजा का अवसर नहीं निकाल सकता है तो उसे अधर्मी नहीं कहा जा सकता जब तक उसके मनमें श्रद्धा है व लाचारी वश वह नहीं कर सका है। अथवा किसी का मन किसी कर्म में अधिक लगता है और दूसरों को कम करता है व कभी नहीं करता है परन्तु करना लाभदायक सममता है तो भी वह अधर्मी नहीं हो सकता ; क्योंकि जैन मत में प्रयोजन आत्मध्यान करके सुख शांति पाने का है वह जिस तरह

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