Book Title: Sanatan Jain Mat
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Premchand Jain Delhi

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Page 28
________________ ( २४ ) और व्यवहारमय से जानने वाला ही सच्चे तस्ववान को पाता है और आत्मा के शुद्ध स्वभाव में रमणकर सुख शांति का भोग ले सकता है। श्री अमृतचंद्र प्राचार्य पुरुषार्थ सिद्ध पाय में कहते हैं :ज्यवहार निरचयायः प्रबध्यतत्त्वेन भवतिमध्यस्थः प्राप्नोति देशनायः सएवफल मविकलं शिष्यः ॥८॥ जो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को सच्चा जानकर वीतरागी हो जाता है वही शिष्य जैनमत के उपदेश के पूर्ण फल को पाता है। आत्मा को शुद्ध करने का व सुख शांति पाने का उपाय भी वही प्राचार्य बताते हैंविपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्यव्यवस्य निज तत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनंस एव पुरुषार्थसिद्धपायोऽपम् ॥१५॥ भावार्थ-जो उल्टा भाव या भूल भरी बात को हटाकर, अच्छी तरह अपने आत्मा के स्वभाव को समझ लेते हैं ; फिर उस स्वभाव में हरते हैं वे ही मुक्ति रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि कर पाते हैं। जैनमत ने सच्चे सुख के पाने का उपाय एक मात्म-ध्यान को ही बताया है।

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