Book Title: Samveg Rangshala Author(s): Vinayrakshitvijay Publisher: Shastra Sandesh View full book textPage 9
________________ तहाहिअसमंजसं भमंतो, निरंकुसं विविहविसयरण्णम्मि। अरइरइकुमइकरिणी-कसायकलभोरुजूहजुओ ॥ ३५ ॥ कयबहुगुणतरुभंगो, पमायमयमत्तमणकरी एस । अवगुंठइ अप्पाणं, पए पए बहुविहरएणं ॥३६॥ अत्थनिरवेक्खवित्ती, पइक्खणऽण्णण्णवण्णकयघडणा। असइ व्व विलसमाणी, वाणी वि अणत्थपत्थारी ॥३७॥ असमंजसवावारो, सव्वत्थ समंतओ वि अनिरुद्धो । तत्तायगोलकप्पो, काओ वि न होज्ज कुसलकरो ॥३८॥ एक्ककं पि इमेसि, लोगदुगावायबीयमऽनिरुद्धं - किं पुण तस्समवाओ, जएज्ज ता तण्णिरोहकए ॥ ३९ ॥ सो पुण पसत्थगंथऽत्थ - चिंतणा-विरयणाऽऽइणा चेव । सम्मं पारद्धेणं, संजायइ नण्णहा जम्हा ॥ ४०॥ अत्थेहाए तस्सेव माणसं, भासणेण पुण वयणं । होइ च्चिय सुनिरुद्धं, तल्लिहणाईहिं पुण काओ ॥४१॥ एवं च कम्मबंधेक्क-हेउपडिरुद्धजोगपसरस्स। होही महप्पणो च्चिय, उवयारो पत्थुयपबंधा ॥ ४२ ॥ इह (य) तण्णिरोहजणिओ, एसुवयारो परोऽणुभवसिद्धो। संवेगवण्णणे पुण, पए पए पसमसुहलाभो ॥४३॥ तह संवेगसनिव्वेय-पमुहपरमत्थवित्थरो जत्थ । दुल्लम्भो सुमिणम्मि वि, वणिज्जइ तं परं सत्थं ॥४४॥ जत्थ पुणाऽणाइभव-ब्भासवसेणं सयं पि संसिद्धा । तह सुकर च्चिय गोवाल-बालविलयाइयाणं पि ॥४५॥ कामऽत्थऽज्जणविसया, निवनीईगोयरा तह उवाया। देसिज्जं ति बहुहा, सत्थं तमणत्थयं मण्णे ॥४६॥ इय संवेगाऽऽइहियऽत्थ-देसगस्सेव एत्थ सत्थस्स । सवणपरिभावणेसुं, निच्चं पि बुहेहिं जइयव्वं ॥४७॥ संवेगगब्भसुपसत्थ-सत्थसवणं हि होइ धण्णाणं । सवणेऽवि धण्णतरगाण, चेव ता समरसाऽऽपत्ती ॥४८॥ अवि यजह जह संवेगरसो, वणिज्जइ तह तहेव भव्वाणं । भिज्जति खित्तजलमिम्म-याऽऽमकुंभ व्व हिययाई ॥४९॥ सारोऽवि य एसो च्चिय, दीहरकालंपि चिण्णचरणस्स। जम्हा तं चिय कंडं, जं विधइ लक्खमाझे वि ॥५०॥ सुचिरं पि तवो तवियं, चिण्णं चरणं सुयं पि बहु पढियं । जइ नो संवेगरसो, ता तं तुसखंडणं सव्वं ॥५१॥ तह संवेगरसो जइ, खणं पि न समुच्छलेज्ज दिवसंतो। ता विहलेण किमिमिणा, बज्झाऽणुट्ठाणकटेणं ।। ५२॥ पक्खंतो मासंतो, छम्मासंतो व वच्छरंतो वा । जस्स न स होज्ज तं जाण, दूरभव्वं अभव्वं वा ।। ५३॥ रूवे चक्खू मिहुणे, हियालिया रसवईए जह लवणं । तह परलोगविहीए, सारो संवेगरसफासो ॥ ५४॥ एसो पूण संवेगो, संवेगपरायणेहिं परिकहिओ। परमं भवभीरुत्तं, अहवा मोक्खाऽभिकंखित्तं ॥५५॥ ता तव्वुड्ढिकए च्चिय, न केवलं कम्मवाहिविहुराणं । भवियाणमप्पणो च्चिय, चिरगुरुवेज्जोवएसाओ ॥५६॥ मेलित्तु वयणदव्वे, भावाऽऽरोगेक्कहेउमारद्धं । आराहणारसायण-मेयं अजरामरत्तकरं ॥५७॥ किंचपरिगलइ पावसलिलं, ठियस्स आराहणाससिपहाए। जीवससिकंतमणिणो, पइक्खणं दिव्वजोइस्स ॥५८॥ संवेगसारमेसा, वायंत-सुणंत-भावमाणाणं । काही कलुसं पि मणं, विमलं कयगप्फलं व जलं ॥ ५९॥ एत्तो च्चिय ललियपया, अकुडिल-कोमल-सुहऽत्थकलिया य। अक्खंडलक्खणवरा, सुवण्णरयणुज्जलसरीरा ॥६॥ सुइसुहयभद्दसद्दा, विविहालंकारकलियसव्वंगा। उल्लसियपसन्तरसा, पगिट्ठपरलोयविसयकरा ॥६१ ॥ बहुभावविरयणाउ, उप्पायंती परंपराणंदं । परिहरियअसग्गाहा, अणत्थबहुला य न कहिं पि ॥ २॥ बहुएहितो उवजीवि-यऽत्थसारा महाभुजिस्सेव । करणविहीए वि हु कय-परिस्समा मूलकालाओ ॥६३॥ अप्पसमरइपराणं, निच्चं पि हु विहियमोहणासाणं । नाणाऽऽभोगरयाणं, उदग्गवयसंगयाणं च ॥६४॥ समणवियड्ढविलासीण, काण मणहरणकारणं न इमा। नयणसुहदाइणी भाव-णिज्जवयणा य नो होही ॥६५॥ एवं चिय दूरुज्झिय-निययपरिग्गहपसंगवंछाणं । सुगिहत्थाण वि निव्वुइ-निमित्तमेसा कह न होही ॥६६॥ १ हितालिका - हितश्रेणिPage Navigation
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