Book Title: Samvayang Sutram
Author(s): Punyakiritivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust

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Page 274
________________ श्रीसमवायाङ्ग श्रीअभय० वृत्तियुतम् // 254 // सूत्रम् 153 शरीरावधिवेदनालेश्याऽऽहारसूत्रम् भवप्रत्ययस्तंभवं यावन्न प्रतिपतति, क्षायोपशमिकस्तूभयथेति // 152 // एतदेव दर्शयति___ कइविहे णं भंते! ओही पन्नत्ता?, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, भवपच्चइए यखओवसमिए य, एवं सव्वं ओहिपदंभाणियव्वं, सीया यदव्व सारीर साया तह वेयणा भवे दुक्खा। अब्भुवगमुवक्कमिया णीयाए चेव अणियाए॥१॥ नेरइया णं भंते! किं सीतं वेयणं वेयंति उसिणं वेयणं वेयंति सीतोसिणं वेयणं वेयंति?,गोयमा! नेरइया० एवं चेव वेयणापदं भाणियव्वं ॥कइणं भन्ते! लेसाओ प०?,गो०! छलेसाओप०, तं०-किण्हा नीला काऊतेऊपम्हा सुक्का, एवं लेसापयं भाणियव्वं // अणंतरा य आहारे आहाराभोगणा इय। पोग्गला नेव जाणंति, अज्झवसाणा य सम्मत्ते // 1 // नेरइया णं भंते! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विकुव्वणया?, हंता गोयमा! एवं आहारपदं भाणियव्वं // सूत्रम् 153 // कइविहे इत्यादि, अनावसरे प्रज्ञापनायास्त्रयस्त्रिशत्तमं पदमन्यूनमध्येयमिति, अनन्तरमुपयोगविशेषः क्षायोपशमिको जीवपर्यायः उक्तोऽधुना स एवौदयिको वेदनालक्षणोऽभिधीयते-सीया इत्यादि द्वारगाथा, तत्रसीया यत्ति चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये तेन त्रिविधा वेदना-शीता उष्णा शीतोष्णा चेति,तत्र शीतामुष्णां च वेदयन्ति नारकाः, शेषास्त्रिविधामपि, दव्व त्ति उपलक्षणत्वाच्चतुर्विधा वेदना द्रव्यादिभेदेन, तत्र पुद्गलद्रव्यसम्बन्धात् द्रव्यवेदना नारकाद्युपपातक्षेत्रसम्बन्धात् क्षेत्रवेदना नारकाद्यायुःकालसम्बन्धात् कालवेदना वेदनीयकर्मोदयाद्भाववेदना, तत्र नारकादयो वैमानिकान्ताश्चतुर्विधामपि वेदनां वेदयन्तीति, तथा सारीर त्ति त्रिविधा वेदना शारीरी मानसी शारीरमानसी च, तत्र संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वे त्रिविधामपि इतरे तु शारीरीमेवेति, तथा साय त्ति त्रिविधा वेदना-साता असाता सातासाता चेति, तत्र सर्वे जीवास्त्रिविधामपि वेदयन्तीति, 0 त्रिधा (प्र०)। // 254 //

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