Book Title: Sambodhi 1990 Vol 17
Author(s): H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 94
________________ अग सूत्र 'आचार'-सापेक्ष जीवसिद्धि गुरू विचक्षण पदज - साध्वी सुरेखा श्री जैन वाङ्मय की धारा सदैव 'जीव' सापेक्ष ही प्रवाहित रही है । सात तत्त्व, पंचास्तिकाय., षड्द्रव्य, नवपदार्थ सभी में जीव तत्व को ही प्राथमिकता दी गई है। जैन दर्शन की आधारशिला ही जीव तत्त्व है । बंधनयुक्त जीव ही संसार और बंधनमुक्त जीव ही सिद्ध है। जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व जैन दर्शन मान्य करता है । इसमें भी प्राधान्य जीव-तत्व का ही है । क्योंकि दृश्यमान अजीव तत्त्व जीव तत्त्व का ही कलेवर है, ऐसा स्पष्ट मन्तव्य है । यद्यपि इन दो तत्त्वों को प्रमुखता दी है, तदपि जीव-तत्व ही इस दर्शन का केन्द्र बिंदु रहा है । जीव और अजीव तत्व की मिश्रावस्था ही, इस संसार का हेतु है । अजीव संलग्न जीव ही ससरण करता है, भ्रमण करता है । वस्तुतः जीव तत्त्व है भी या नहीं ? जीव है तो कैसा है? उसका स्वरूप क्या है? उसका लक्षण क्या है ? इत्यादि अनेक प्रश्न दाशनिक चिन्तन के विषय सदैव से रहे है। चिन्तक-धरा पर प्रस्फुटित होते रहे हैं। द्वादशानी के प्रथम अंग सूत्र 'आचार' में जीवअस्तित्व, जीव सिद्धि पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । जीव को आत्मा, चैतन्य आदि अभिधानों से भी उल्लिखित किया गया है । 'जीव-सिद्धि' इस तथ्य की प्रामाणिकता इसमें 'अस्तिवाद के चार अगों की स्वीकृति द्वारा होती है, आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद ।' इसी तथ्य की पुष्टि 'सूत्रकृताङ्ग' द्वितीय अंग सूत्र में भी है, 'लोक-अलोक, जीव-अजीव, धर्म -अधम बध-मोक्ष, पुण्य-पाप, क्रियो-अक्रिया नहीं है ऐसी संज्ञा मत रखो, किन्तु ये सब हैं । ऐसासंज्ञा रखो। आत्मवादी, लोकवादी, कमवादी और क्रियावादी किसे कहा जाय ? जो आत्म स्वरूप को समझ लेता है वही सच्चा आत्मवादी है। जो आत्मबादी है वही सच्चा लोकवादी है। जो आत्मा के और लोक के स्वरूप को जानता है वही कर्मवादी और जो कर्मवादी है वही क्रिया करने से क्रियावादी होता है। आचाग के इस उल्लेख से यह स्पष्ट हे। जाता है कि आत्मा या जीव का अस्तित्व है या नहीं? जिसने आत्म स्वरूप को जाना है, वही लोक को भी जान पाता है । वही कर्म और क्रिया में भी पूर्ण निष्ठा के साथ तत्पर होता है । आत्मज्ञान मात्र यहाँ पर्याप्त नहीं है. तदनुसार लोक में कर्म और कर्मानुसारी क्रिया भी यहाँ महत्त्वपूर्ण है। यह सूत्र जैन दर्शन पर 'अकर्मण्यता' के आरोप का भी निराकरण करता है । साथ ही जो दर्शन आत्मा को सर्वव्यापी, नित्य, क्षणिक, अकर्ता मानते है, उसका भी निरसन करता है । . ___ अन्य दर्शनों ने किसी ने आत्मवाद को, तो किसीने लोकवाद को महत्त्वपूर्ण बताया। किसी ने कर्म को तो किसी ने क्रिया को प्राथमिकता दी । वहाँ जैन विचारणा अनेकान्तवाद पर आधारित होने से आत्मवाद के साथ लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद को भी ग्रहण करती

Loading...

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151