Book Title: Sambodhi 1990 Vol 17 Author(s): H C Bhayani Publisher: L D Indology AhmedabadPage 97
________________ साध्वी सुरेखा श्री कर्ण, नासिका आदि इन्द्रियों से रहित ये जीव वेदना का अनुभव मूञ्छितावस्था की भांति करते हैं। यद्यपि इन्द्रियाभाव के कारण उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाते, फिर भी उनका अनुभव तो होता ही है। इसी भाँति अपकाय, तेजस् कायादि जीवों की अनुभूति अव्यक्त रूप से होती है। अकाय के जीव को सजीव मानना यह जैन दर्शन की मौलिकता है। भगवान् महावीर के काल में अन्य दार्शनिक जल को स नीव नहीं मानते थे, किन्तु तदाश्रित अन्य जीवों की सत्ता स्वीकार करते थे । तैत्तिरीय, आरण्यक में 'वर्षा' को जल का गर्भ माना है और जल को 'प्रजननशक्ति' के रूप में स्वीकार किया गया है। 'प्रजनन क्षमता' सचेतन में ही होती है अतः सचेतन होने कि धारणा का प्रभाव वैदिक चिन्तन पर पड़ा है, ऐसा माना जा सकता है।19 किन्तु मूलत. अणगार दर्शन को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक जल को सचेतन नहीं मानते थे । इसी कारण यहाँ आचाराङ्ग सूत्र में दोनों तथ्यों को स्पष्ट किया है । 1. जल सचेतन है 2. सदाश्रित अनेक छोटे बडे जीव रहते हैं । इस प्रकार जल को सचेतन मानकर उसमें जीव अस्तित्व सिद्ध किया है। . . आ जिस प्रकार पृथ्वी, पानी में जीव-सत्ता को मान्य किया है, उसी प्रकार तेउकाय-तेजस् काय में भी चेतना मानकर जैन दर्शन में अग्नि को जीव माना है। भगवान् महावीर कालीन धर्मपरम्पराओं में जल तथा अग्नि दोनों को देवता मानकर पूजा जाता था, किन्तु उसकी हिंसा का विचार नहीं किया गया था। जल से शुद्धि और पंचाग्निता से सिद्धि मानकर इनका खुल्लमखुल्ला प्रयोग किया जाता था। भगवान् महावीर ने इन दोनों को ही सजीव माना है । टीकाकार शीलांकाचार्य के अनुसार, 'अग्नि की सजीवता तो स्वयं ही सिद्ध है। उसमें प्रकाश व उष्णता का गुण है। जो कि सचेतन में होते हैं । साथ ही अग्नि वायु के अभाव में जीवित भी नहीं रह सकती है।1 स्नेह, काष्ट आदि का आहार लेकर बढ़ती है, आहार के अभाव में घटती हैं | यह सब उसकी सजीवता के स्पष्ट लक्षण है। भगवती सूत्र में भी इसकी पुष्टि की गई है 122 - वनस्पतिकाय की सचेतनता बताने के लिए मनुष्य शरीर के साथ तुलना करते हुए कहा है कि 'जैसे अपना शरीर उत्पन्न होता है, वैसे यह वनस्पति भी उत्पन्न होती है। अपना शरीर बढ़ता है तो वनस्पति में भी वृद्धि होती है । अपने शरीर में चैतन्य है तो यह भी चैतन्यवान् हैं । अपने शरीर को छेदने से यह कुम्हला जाता है, उसी प्रकार यह भी छेदने से कुम्हला जाती है। जिस प्रकार अपने शरीर को आहार चाहिये, उसी प्रकार वनस्पदि को भी आहार की आवश्यकता होती है। अपना शरीर अनित्य, अशाश्वत हैं. तो वनस्पति भी अनित्य-अशाश्वत है । अपना शरीर घटता बढ़ता है तो यह भी घटती बढती है। अपना शरीर अनेक विकारों को प्राप्त करता है, वैसे यह भी विकारों से ग्रसित होती है ।23 यहाँ वनस्पति की सचेतनता का उल्लेख स्पष्ट रीति से किया गया है । ज्ञानयुक्त मनुष्य की भाँति इसमें भी ज्ञान होता है क्योंकि धात्री, प्रपुन्नाट (लोजवन्ती) आदि वृक्षों में सेना जागना पाया जाता है । अपने नीचे जमीन में गाडे हुए धन की रक्षा के लिए ये अपनी शाखा फैलाते हैं 15Page Navigation
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