Book Title: Sambodhi 1990 Vol 17
Author(s): H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 92
________________ प्राकृत भाषा में उवृत्त स्वर के स्थल पर 'य' श्रुति की यथार्थता इय-सामिय (स्वामिक) L 11063 नासिक IV उय-पुयथ (पूजार्थ) L 10003 कण्हेरी ओय-महाभोय (महाभोज) L 1073 कुडा (ii) आया-राया (राजा) L 1113 नानाघाट I । उया-वेण्डया (विष्णुका) L 1060 कुडा (iii) अयि---पवयितिका (प्रवजितिका) L 1041 कुडा पवयित (प्रवजित) L 1125 नासिक IV, कण्हेरी आयि-भायिला (भ्राजिला) L 1050 काले । इयि--वाणियिय (वाणिजिय-वाणिज्य) L 1055 कुडा एयि-वेथिका (वेदिका) L 1089 काले' I (iv) आयू-पायून (पादोन) L 1133 नासिक III यही नहीं परन्तु चतुर्थ शताब्दी के मैसूर राज्य के बेलारी जिल्ले के शिवस्कंदवर्मा के हीरहडगल्लि के ताम्रपत्र में भी य श्रुति का प्रयोग मिलता है। भारदायो (भारद्वाजः), भारदाय (भारद्वाज), अकूर-योल्लक (अकर-चालक) अर्थात् ऐसा अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि दक्षिण में यह प्रवृत्ति नहीं थी। इस परिप्रेक्ष्य में वररुचि द्वारा 'य' श्रुति का उल्लेख नहीं किया जाना उनके व्याकरण का एक आश्चर्य ही है। शिलालेखों में जो उदाहरण मिलते हैं उनमें सभी स्वरों के पश्चात् आने वाले उदवृत्त स्वरों के स्थान पर य अति मिलती है। पिशल महोदय का भी मत है कि जैनों द्वारा लिखी गयी हस्तप्रतों में भी यही स्थिति है परन्तु जैनेतर रचनाओं की हस्तप्रतों में यह य श्रुति नहीं अपनायी गयी है। उनका कहना है कि लेखन का सही तरीका यह है कि सभी स्वरों के बाद उदवृत्त स्वर अ और आ के स्थान पर य अति का उपयोग होना चाहिए (पिशल 187)। . आधुनिक भाषाओं में भी यह य श्रुति कितने ही शब्दों में पायी जाती है। हिन्दी : गया, किया, दिया, पिया, अंधियारा, बहिनिया, जीयदान, अमिय, पियर । गुजराती : पियर, मायरु, दियर, गयो, शीयालो, होय छे. वेण (बयण-वचन). अन्य शब्द : धनपतराय, रायबहादुर, कायर. वास्तव में उच्चारण की सरलता और लघु प्रयत्न का ही सिद्धान्त इस य श्रति में लागू होता है जो एक स्वाभाविक नियम है जिसके लिए व्याकरणकारों का अनुमोदन हो या न हो। परन्तु सभी जनेतर प्राकृत रचनाओं में य श्रुति का नहीं मिलना वास्तविकता के अनुरूप नहीं है और इसे भाषाकीय-कृत्रिमता ही कहा जायगा। यह कृत्रिमता वररुचि के प्रभाव से आयी हो या अन्य कोई परम्परा के कारण, जो हो सो हो परन्तु है एक प्रकार से अस्वाभाविकता का दोष ।

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