Book Title: Samayasara
Author(s): Kundkundacharya, Hiralal Jain, A N Upadhye
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 285
________________ 156 SAMAYASARA Jain Education International jaha puna so ceva naro nehe savvamhi avaniye samte renubahulammi thāne karei satthehi vāyāmam (242) यथा पुनः स चैव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति । रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ॥ २४२॥ छिदिभिददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिडीओ । सच्चित्ताचित्ताणं करेइ दव्वाणमुवघायं ॥ २४३॥ chimdadi bhimdadi ya tahā tālītalakayalivamsapimdio saccittācittānam karei davvānamuraghāyain (243) छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपडीः । सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ॥२४३॥ उवघायं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहि करणेहि । णिच्छयदो चितिन्नदु कि पच्चयगो ण रयबंधो ॥ २४४ ॥ uvaghayam kuvvamtassa tassa ṇāṇāvihehim karanehim nicchayado cimtijjadu kim paccayago na rayabaidho (244) उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः । निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किं प्रत्ययको न रजोबन्धः ॥ २४४ ॥ जो सोदु भावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहि सेसाहि ॥ २४५॥ ja sodu nehabhavo tamhi nare tena tassa rayabaṁdho nicchayado vinneyam na kayaceṭṭhāhim sesähim यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः । निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ॥२४५॥ एवं सम्मादिट्ठी तो बहुविहेसु जोगेसु । अकरंतो उवओगे रागाई ण लिप्पइ रयेण ॥ २४६ ॥ evam sammadiṭṭhi vaṭṭamto bahavihesu jogesu akaramto uvaoge rāgāi na lippai rayena ( 246 ) एवं सम्यग्दृष्टिर्वर्तमानो बहुविधेषु योगेषु । अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ॥ २४६ ॥ 242 to 246. On the other hand a person entirely free from oily smear on the body, standing in a place full of dust, performs exercises with a sword, cuts or breaks trees such as palm, tamala, plantain, bamboo and aśoka and thus causes destruction to (245) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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