________________
ऋषभायण में ऋषभ के जीवन दर्शन को मूलतः दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है, जिसमें पहला है कर्मयोगी का रूप और दूसरा है योगी का रूप। दोनों रूप विकास की ही दशा को बताते हैं। प्रथम रूप समाज एवं राज्य उत्थान से संबंधित है तो दूसरा रूप आत्म उत्थान से। प्रथम रूप में लोक दर्शन है तो दूसरे रूप में आत्मदर्शन। यहाँ इस आधार पर हम कह सकते हैं कि कर्मयोग योग में प्रवेश करने का मार्ग है। जीवन में संभूत क्षणों को जीने तथा अपने संपूर्ण दायित्वों के निर्वाह के बाद जब सहज वैराग्य का जन्म होता है, तभी वह आत्मसाक्षात्कार और आत्मानन्द का कारण बनता है। ऋषभ का वैराग्य सहज था, जिस कारण ही वे लोगों को मुक्तिमार्ग दिखलाने में सफल हुए हैं।
_महाकाव्यों में अनेक रसों की योजना होती है किन्तु मूल रस के रूप में श्रृंगार, वीर अथवा शांत रस में से किसी एक रस की प्रधानता होती है। अन्य रस मूल रस के सहयोगी होते हैं। कवि जब किसी एक रस को स्थायी बना उसमें अन्य रसों को समाहित करता है तो वे रस मुख्य रस को दबा नहीं पाते
रसान्तर समावेशः प्रस्तुतस्य रसस्य यः। नोपहन्त्यड.नतां सोऽस्य स्थायित्वे नाव भासिनः । (10)
मूल रस की महाकाव्य में चरम व्याप्ति रहती है। अन्य रसों से अवान्तर कथा का विकास होता है। ऋषभायण में मुख्य रस के रूप में शान्त रस की प्रतिष्ठा हुई है। वीर एवम् अन्य रस शांत रस को पुष्ट करते हैं। प्रधान रस का नायक के साथ प्रत्यक्षतः सम्बन्ध रहता है, प्रबंध काव्य की कथावस्तु में मूलतः नायक के कार्य व्यापार और उपलब्धियों का ही वर्णन रहता है।11)
आचार्यों ने महाकाव्य में रस निर्धारण के संबंध में विरोधी रसों की ओर
भी संकेत किया है। वीर, श्रृंगार, रौद्र, हास्य, भयानक रस, शांत रस के विरोधी हैं। एक ही नायक में इनकी योजना दोषपूर्ण मानी जाती है। ऋषभायण में नायक ऋषभ का संपूर्ण चरित्र शांत रस से मंडित है, विरोधी रसों का परिपाक उनमें नहीं हुआ है। युद्ध के क्षणों में भरत बाहुबली तथा अन्य पात्र उत्साह स्थायी भाव से मंडित है। माँ मरूदेवा का ऋषभ के प्रति चिंता वात्सल्य रस से परिपूर्ण है। इस प्रकार
| 24॥