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लगता है कुछ अभिनव होगा, जो न हुआ अब तक जग में, पावन दीप लिए आशा का, रक्त प्रवाहित रग-रग में। ऋ.पृ. 34
बल, स्फूर्ति, उत्साह और यौवन अमूर्त है, जिसका चित्रण प्रत्यक्षतः ऋषभ के पुष्टगात्र, कोमलतम कच तथा विहँसते हुए कमलवत नेत्रों से किया गया है। ऋषभ का व्यक्तित्व ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उनमें प्रत्यक्षतः स्फूर्ति मूर्त्तमान हो गयी हो तथा उत्साह भी मुखरित हो गया हो। यहाँ ऋषभ के यौवन का बहुत ही सुन्दर बिम्ब निरूपित किया गया है -
वलिवर्जित वपु, श्यामलतम कच, लोचन-कुवलय विहंस रहे, स्फूर्ति मूर्त, उत्साह मुखरतर, लक्षित यौवन, बिना कहे। ऋ.पृ. 39
जन्म और मृत्यु की अमूर्त दशा के लिए सिन्धु में उठती मिटती लहर तथा 'जलती' 'बुझती' बाती के मूर्त स्वरूप से व्यक्त किया गया है -
लहर सिंधु में उठती-मिटती, फिर उठती फिर मिट जाती। जन्म-मृत्यु की यही कहानी, जलती-बुझती है बाती।। ऋ.पृ. 42
चिंता के अमूर्त रूप को ललाट पर उभरी हुई रेखाओं से दर्शाया गया है। युगलों की आवास व्यवस्था की समस्या से चिन्तित ऋषभ के मस्तक पर पड़े हुए बल से सौ धर्म लोक का अधिपति उनके चिंतन और चिंता का कारण समझ आवास समस्या को सुलझाने की बात करता है -
है प्रभु-ललाट पर अंकित चिन्तन रेखा चिंतन में चिंता को इठलाते देखा आवास समस्या को क्षण में सुलझाऊँ नगरी की रचना पर कृतार्थ बन जाऊँ ।
ऋ.पृ. 55 जन शोषण में लिप्त निरंकुश शासक की स्वेच्छाचारिता को वृक्षों का शोषण करने वाली 'अमरबेल' के मूर्त्तमान दृश्य से व्यक्त किया गया है। भरत को राजनीति का संबोध देते हुए ऋषभ कहते हैं -
जनता के कंधे पर चढ़कर, चलने का अधिकार न हो। सहजीवन में अमरबेल बन, फलने का अधिकार न हो।।
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ऋ.पृ. 89