Book Title: Rushabhayan me Bimb Yojna
Author(s): Sunilanand Nahar
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 332
________________ मुक्ति नहीं मिल सकती है। 'चाह' के निःशेष हो जाने पर ही आध्यात्मिक लोक के कपाट खुलते हैं। आत्म साधना में लीन ऋषभ के सन्दर्भ में निम्नलिखित पंक्तियाँ आर्थी व्यंजना का सशक्त उदाहरण हैं - चाह नहीं है, राह वहीं हैं, सत्य कहीं अस्पष्ट नहीं ! शद्ध चेतना के अनुभव में, प्रिय-अप्रिय का कष्ट नहीं। ऋ.प. 115 नमि विनमि द्वारा राज्य के लिए भरत से याचना न करने के संकल्प में उनके स्वाभिमान की व्यंजना हुयी है। नागराज धरण से नमि-विनमि कहते हैं - है कौन भरत ! जो दाता, हम अदाता, इस जीवन में तो केवल प्रभु ही त्राता तुम सुनो, भरत से राज्य नहीं लेना है, यह प्राज्य राज्य तो प्रमु को ही देना है। ऋ.पृ. 123 इससे यह भी ध्वनि निकल रही है कि भरत को साम्राज्य पिता ने दिया है जिस पर पालित पुत्र होने के नाते उसका भी अधिकार है और उसे वह पिता के द्वारा मिलना ही चाहिए, जिसे हम लेकर ही रहेंगे। यहाँ नमि-विनमि के द्वारा पुत्रवत अधिकार भाव की सफल अभिव्यक्ति हुई है। "गुफा तमिस्त्रा' में व्याप्त अंधकार की भयावहता की व्यंजना 'रौरव की काया' कथन से की गयी है जिसमें दण्ड रत्न से सुरक्षित होने के बावजूद भी सेनापति प्रवेश करने में कतराने लगता है - देखा वजकपाट तमिस्त्रा, की रौरव-सी काया पूर्ण भरोसा, दण्ड-रत्न पर, फिर भी मन कतराया। ऋ.पृ. 168 सागर और भ्रमर के लक्षणा मूला व्यंग्यार्थ से भरत की अतृप्ति एवं अहंकारी वृत्ति को स्पष्ट किया गया है। तमाम नदियों का जल अवशोषित करने के पश्चात् भी सागर अतृप्त ही है का व्यंग्यार्थ है, अधिकांशतः नरेशों को विजित करने के बावजूद भी धन-धान्य से परिपूर्ण भरत की तृष्णा बुझी नहीं, बढ़ती ही जा रही है, जिससे वैभव रूपी पराग रस का पान करने वाला यह भौंरा उन्मत्त सा हो गया | 312]

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