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मूर्तित किया गया है। इच्छा से इच्छा की उत्पत्ति वैसे ही होती है जैसे दूध से दधि और दधि से तक्र का निर्माण होता है -
इच्छा से इच्छा बढ़ती है, इच्छा का अपना है चक्र। दूध जन्म देता है दधि को, दधि से फिर बनता है तक।
ऋ.पृ. 62
वाड्मय (साहित्य) के संपूर्ण विकास को वैडूर्य मणि से मूर्तित किया गया है। शब्द, लय, अलंकरण के समन्वय से भाषा का निर्माण होता है जो वैडूर्यमणि के समान जन समाज को आलोकित करता है -
वाङ्मय की शिक्षा विकसित हो, शब्द-सिद्धि, लय का माधुर्य । अलंकरण, यह त्रिपद समन्वित, बनता वाङ्मय का वैडूर्य। ऋ.पृ. 66
ऋषभ भरत को शब्द शास्त्र एवं पुत्रियों को विद्याध्ययन के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार दुग्ध में शक्कर घुल जाती है, वैसे ही छंद शास्त्र का आत्मसातीकरण होना चाहिए। विद्या तो कामदुहा 'धेनु' है, जो सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है। यहाँ छन्दशास्त्र के आत्मसातीकरण एवं विद्या अमूर्त के लिए क्रमशः दुग्ध में घुली हुई सिता एवं कामधेनु का बिम्ब निरूपित किया गया है -
भरत! शब्द का शास्त्र पढ़ो तुम, शब्द-सिद्धि का द्वार खुले छन्द शास्त्र हो आत्मसात तब, सिता दूध में सहज घुले ।
पढ़ो पुत्रियों कर्मभूमि में, विद्या का होगा सम्मान । विद्या कामदुहा धेनू है, कल्पवृक्ष का नव प्रस्थान। ऋ.पृ. 66
सुख की सरिता ७) तथा 'लोभ' और 'क्रोध' अमूर्त को क्रमशः 'अंकुर' और 'आसुर' से व्यक्त किया गया है -
सुख की सरिता में सारे जन, है आकंठ निमग्न।
ऋ.पृ. 79
जब-जब लोभाकुंर बढ़ता है, बढ़ता आसुर क्रोध ।
ऋ.पृ. 82
राजनीति के संदर्भ में शासक एवं शासन के लिए भी अमूर्त उपमानों का
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