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अमूर्त भावों के मूर्तन में खाद्यानों का भी उपयोग किया गया है। कालपरिवर्तन के साथ नियमों में भी बदलाव होता है। जन्म के पश्चात् युगलों का विकास इतनी तीव्रता से होता है कि वे छह मास में ही युवा बन जाते है। काल और नियम के परिवर्तन की इस अमूर्तता को 'कभी बांजरी' और 'कभी चना' से मूर्तित किया गया है -
त्वरित वृद्धि होती युगलों की, मास षट्क में युवा बना, काल बदलता, नियम बदलते, कभी बाजरी कभी चना।
ऋ.पृ. 23
मोद अमूर्त हैं। माँ मरूदेवा के दिव्य स्वप्न से दिशाएँ एवं दिग्गज तो प्रमुदित हैं ही। साथ ही यह भोदभाव माँ मरूदेवा के मूर्त रूप में छलकता हुआ भी प्रतीत हो रहा है -
मुदित दिशाएँ प्रमुदित दिग्गज, मोद मूर्त बन छलक उठा। ऋ.पृ. 33
आशंका एवं आशा अमूर्तभाव को क्रमशः 'बादल' और 'सूर्य' की रश्मि से रूपायित किया गया है। प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि जब-जब नवीन परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तब-तब लोगों के हृदय में आशंका के बादल मंडराने लगते हैं। कुहेलिका से प्रभातकाल के ढक जाने पर भी लोगों में सूर्य के किरणों की दर्शन की आशा बनी रहती है। सुनन्दा, सुमंगला सह ऋषभ के विवाह के सन्दर्भ में जनमानस की आशंका व आशा को बिम्बायित किया गया है -
यह नियम निसर्गज, नव्य परिस्थिति आती
तब-तब आशंका बादल बन मंडराती
है सर्दी का प्राभातिक दृश्य कुहासा जीवित रहती है सूर्य-रश्मि की आशा।
ऋ.पृ. 49
दुःख को 'प्रलय' एवं सुख को 'सृजन' के रूप में भी मूर्त्तमान किया गया
है
दुःख-प्रलय सुख-सृजन के, हेतु मनुज का यत्न। ऋ.पृ. 61 इच्छा अमूर्त भाव की उत्पत्ति दूध से निर्मित होने वाले दधि एवं तक्र से
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