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अमूर्त के द्वारा मूर्त्त की अभिव्यक्ति -
ऐसे अमूर्त जिनके गुण, रूप, रंग की कल्पना करना कठिन हो है, किन्तु फिर भी उसकी 'अभिव्यक्ति' के लिए हमारे हृदय में उसी के अनुरूप कोई न कोई रेखा जन्म ले लेती है। भाव कितना ही सूक्ष्म व अमूर्त हो, उसकी मूर्तता कवि तलाश ही लेता है। यदि हम छायावादी काव्य पर दृष्टिपात करें, तुलसीदास के रामचरितमानस तथा सूरदास के सूरसागर को देखें अथवा कालिदास की रचनाओं का अवलोकन करें तो पाएंगे कि ये कवि अमूर्त के द्वारा मूर्त की अभिव्यक्ति करने में पूर्णतः सफल रहे हैं। ऐसे ही आचार्य महाप्रज्ञ अमूर्त के द्वारा मूर्त की उपस्थापना में पूर्णतः सफल हुए हैं, जैसे-समय निरंतर गतिशील है। समय की इस अमूर्त गतिमयता से रथ को मूर्तित कर समय की अमूर्तता को गतिमयता प्रदान की गयी है। उत्सर्पिणी काल से अवसर्पिणी में प्रवेश उन्नति से अवनति की ओर जाना है -
बढ़ा समय-रथ जैसे आगे, चला हास का वैसे चक्र। ऋ.पृ. 12
पीड़ा का अपना साम्राज्य होता है। पीड़ा से ही प्रकाश की किरणें फूटती हैं। रति यानी भोग के अज्ञानान्धकार का जन्म होता है तो कोरी बुद्धि से विकृत परलोक की धारणा बनती है। इस प्रकार भोगवाद और बुद्धिवाद से सम्यक् ज्ञान की प्रतिष्ठा सम्भव नहीं है। यहाँ कष्ट, रति और मति अमूर्त स्त्रोत साधन के रूप में प्रयुक्त हुए हैं जो क्रमशः 'आलोक, 'तिमिर' और 'विकृत' परलोक को मूर्तित करती है -
कष्ट से उद्भूत हैं ये, रश्मियाँ आलोक की रति तिमिर को जन्म देती, मति विकृत परलोक की।
ऋ.पृ. 15
विवशतापूर्वक युगलों द्वारा स्वतंत्रता, त्याग की अमूर्त वृत्ति को अंकुश के नियंत्रण को स्वीकार करने वाले 'गज' से मूर्तमान किया गया है। युगल कलह, अतिक्रमण से बचने के लिए अपनी स्ववशता का त्याग कर विमल वाहन के नेतृत्व को वैसे ही स्वीकार कर लेते हैं, जैसे 'गज' अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर अंकुश के नियंत्रण को स्वीकार कर लेता है -
विवश स्ववशता त्याग गहन-गज, अंकुश को स्वीकार रहा। ऋ.पू. 19
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