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अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता एवं गहनता का जब प्रश्न उपस्थित होता है, तब अभिधामूलक शब्दावली अपूर्ण प्रतीत होती है। यों वस्तु का विशिष्ट रूप एवं भाव मनुष्य के मस्तिष्क में प्रतीकात्मक रूप में ही उपस्थित रहता है। भाव व्यंजनामें स्थूल यथार्थ से मुक्ति दिलाकर उसे सूक्ष्म व्यंजक शक्ति से भर देने का कार्य प्रतीक करता है। 'प्रतीक विशिष्ट अर्थो में बोध के वे चिन्ह है, जो अपने युग, देश, संस्कृति और मान्यताओं से प्रभावित होने के कारण सन्दर्भानुसार परिवर्तनीय एवं भाव गुणादि से सम्बद्ध सत्य का अन्वेषण करने के लिए प्रयुक्त होते हैं | (26)
जीवन का क्षेत्र विशद् है, जिसकी अभिव्यक्ति लौकिक तथा आध्यात्मिक रूपों में होती है। काव्य में जीवन के दोनों पक्षों का उद्घाटन हुआ है। संतों ने जहाँ कविताओं में आध्यात्मिक प्रतीकों को महत्व दिया है, वहीं अन्य कवियों ने प्रतीकों का लौकिक रूप में उपयोग किया है। 'जब तीव्र अभ्यान्तर अनुभूति चाहे वह भावात्मक हो या कल्पनात्मक-सूक्ष्म और सघन होकर अभिव्यक्ति के हेतु छटपटाने लगती है, तब बाह्य जीवन और पदार्थों के माध्यम से वह साकार हो जाती है तभी बाहय जीवन के रूप और पदार्थ प्रतीक बन जाते हैं। (27)
कवियों की अनुभूति या तो दार्शनिक क्षेत्र में भक्ति भावों में रमी है या लौकिक क्षेत्र में प्रेम या करूणा के भावों में अथवा राष्ट्रीयता के भावों में। अतएव हम प्रमुख प्रतीकों को आध्यात्मिक प्रतीक, श्रृंगारिक प्रतीक, करूणा के प्रतीक और राष्ट्रीय प्रतीक इन रूपों में देख सकते हैं। ये या तो शास्त्रीय हैं या भावात्मक। एक ही प्रतीक विभिन्न भावों का प्रतीक बन सकता है। अतः इस प्रकार का वर्गीकरण कुछ विशेष ठोस आधार नहीं पा सकता। (28)
प्रतीकों का उपयोग विशेष लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। डॉ. महेन्द्र कुमार के अनुसार – प्रतीक प्रयोग के मुख्यतः तीन प्रयोजन हैं:
भावना को मूर्त रूप देने के लिए। कुतूहल और विस्मय उत्पन्न करने के लिए। गोपनीय को दूसरे से गुप्त रखने के लिए 129)
आचार्य महाप्रज्ञ सन्त हैं, उनका संपूर्ण जीवन अध्यात्म एवं दर्शन का
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