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रत्नत्रय विधान
६. श्री निःकांक्षित अंग पूजन
(दीनबन्धु) जिसने किया श्रद्धान वह भगवान हो गया। अपना स्वरूप जानकर महान हो गया ।।१।। चारों कषाय क्षीण करके मोह जय किया। अरहंतदशा प्राप्तकर प्रधान हो गया ।।२।। संसार का अभाव करके सिद्धपद लिया। क्रम-क्रम से पाँच बंध का अवसान हो गया ।।३।। अपनी स्वभावशक्ति से जाता है सिद्धपर। अन्तर्मुहर्त में उसे निर्वाण हो गया ।।४।। हम भी यही करेंगे यह निश्चय किया है आज।
हमको भी आज हे प्रभो निजज्ञान हो गया ।।५।। ॐ ह्रीं श्री निःशंकितांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(वीर) निःशंकित अंग की पूजन कर उर में जागा यह भाव । निःशंकित समकित पाऊँ मैं शंकाओं का करूँ अभाव ।। रत्नत्रयमंडल विधान की पूजन का है यह उद्देश। निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।।
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
(दोहा) द्वितीय अंग नि:कांक्षित, पूजा करूँ विशेष । इच्छाओं को जीतकर, शुद्ध बनूँ परमेश।। पूर्ण शुद्ध सम्यक्त्व की, महिमा अपरम्पार ।
पलभर में मिथ्यात्व हर, देता सौख्य अपार ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निःकाक्षितांग अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निःकाक्षितांग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य निःकाक्षितांग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(सखी) निःकांक्षितजल अब लाऊँ। इच्छा विहीन हो जाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर। जन्मादिरोगत्रय लूँ हर ।।१।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय जन्मजरामृत्यविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निःकांक्षितचंदन लाऊँ। इच्छा विहीन हो जाऊँ।।।
अब पूर्ण अनिच्छुक बनकर। संसारतापज्वर लूँ हर ।।२।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षिततांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
निःकांक्षितअक्षत लाऊँ। इच्छा विहीन हो जाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर। अक्षयपद पाऊँ सत्वर ।।३।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
नि:कांक्षितपुष्प सजाऊँ। इच्छाओं पर जय पाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर । कामाग्नि बुझाऊँ सत्वर ।।४।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षितांगाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
निःकांक्षितसुचरु चढ़ाऊँ। इच्छाओं पर जय पाऊँ।।
प्रभु पूर्ण अनिच्छुक बनकर। जठराग्नि बझाऊँ सत्वर ।।५।। ॐ ह्रीं श्री निःकांक्षिततांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भजन जहाँ-जहाँ ज्ञान है वहीं-वहीं आत्मा। जहाँ ज्ञान नहीं है वहाँ नहीं आत्मा।।
जहाँ नहीं आत्मा वहाँ ज्ञान भी नहीं।
जहाँ पूर्ण शुद्ध ज्ञान वहाँ परमात्मा ।। जहाँ ज्ञान भरा है वहीं तो है आत्मा। जहाँ मिथ्याज्ञान है वहाँ बहिरात्मा ।।
जहाँ ज्ञान प्रगटा है वहाँ अन्तरात्मा । पूर्ण ज्ञान प्रगटा है होता परमात्मा ।।