Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 26
________________ रत्नत्रय विधान स्थितिकरण अंग की महिमा जिनआगम में है विख्यात । धर्ममार्ग से डिगते प्राणीको सस्थिर रखना प्रख्यात ।।९।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महाऱ्या (मानव) निज आत्मतत्व श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन मनभावन । निज आत्मज्ञान ही उत्तम है सम्यग्ज्ञान सुपावन ।।१।। निज आत्मब्रह्म में चर्या करना चारित्र सुहावन । ये ही निश्चय रत्नत्रय हरता है भव के बंधन ।।२।। इसके बिन कभी न मिलता है मोक्षमार्ग प्राणी को। इसके बिन शिवपथ दुर्लभ संसारी अज्ञानी को ।।३।। इसका ही आश्रय लेकर भव्यात्मा शिवपथ पाते। इसकी ही परमभक्ति से वे मुक्तिभवन में जाते ।।४।। जो डिगते हों जिनपथ से उनको मैं सुथिर बनाऊँ। निज स्थितिकरण करूँ प्रभु आत्मोत्पन्न सुख पाऊँ।।५।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, अस्थिरता कर भंग। समकित बिन होता नहीं स्थितिकरण सुअंग ।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगायअनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला (मानव ) यह स्थितिकरण अंग दृढ़ अति उत्तम है समकित का। समकित को सुदृढ़ बनाता यह मार्ग सदा निज हित का ।।१।। अपने स्वभाव में अपने को सुस्थित करूँ सदा प्रभु। अपने को और अन्य को जिनपथ पर सुथिर करूं विभु ।।२।। प्रभु स्थितिकरण अंग को मैं अपने कंठ लगाऊँ। डिगते साधर्मी जन को मैं धर्ममार्ग पर लाऊँ।।३।। यदि निर्धन है तो उसको धन से सम्पन्न बनाऊँ। रोगी है कोई भाई तो उसे निरोग कराऊँ।।४।। श्री स्थितिकरण अंग पूजन कामादि विकारों से जो पीड़ित है मैं समझाऊँ। दृढ़ करूँ धर्म के पथ पर मैं भी प्रभु द्रढ़ हो जाऊँ ।।५।। भय के कारण डिगता हो यदि साधर्मीजन कोई। निर्भय मैं उसे बनाऊँ फिर भय न रहेगा कोई ।।६।। भूखा हो कोई भाई तो भोजन उसे कराऊँ। वस्त्रादि भेंट कर उसको अपने समकक्ष बनाऊँ।।७।। हो भेद न साधर्मी में हो प्रेम सभी से मेरा । मैं तो अब ऋषिमुनियों का हो जाऊँ स्वामी चेरा ।।८।। जो दीन-दुखी हैं उनका भी सारा कष्ट मिटाऊँ। मिथ्यात्व मोहक्षय के हित आत्मोन्मुख उन्हें बनाऊँ।।९।। सुस्थिर स्वरूप में अपने को सुस्थित कर हर्षाऊँ। जितने विभाव हैं उनको पल भर में नाथ भगाऊँ ।।१०।। जो धर्ममार्ग से विचलित होते हों उन्हें सथिर कर। हर्षित होऊँ अपने को निज आत्मा में थापित कर ।।११।। ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) स्थितिकरण अंग की पूजन कर निज में सुस्थिर होऊँ। भवभ्रम क्षय की मनोकामना पूरी हो तो सुख जोऊँ ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् परम शान्ति उर में छायी है पाया सत्य स्वरूप । नाश हुआ मिथ्यात्व सदा को लखा शुद्धतप रूप ।। रागादिक पुद्गल विकार से मैं हूँ भिन्न अनूप । ध्रुव चैतन्यस्वभावी हूँ मैं तो त्रिभुवन का भूप ।। मुक्तिवधू ने आमंत्रण दे गाए मंगलाचार । आज विजय का पर्व अनूठा मंगलमय सुखकार ।। 25

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