Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 30
________________ ५६ रत्नत्रय विधान श्री प्रभावना अंग पूजन कर्मों का जाल न बुनकर चेतन बन जा समभावी। निज साम्यभाव रस पीकर हर ले भवभाव विभावी ।।६।। जो शुद्धभाव उर धरते कल्याण स्वयं का करते । हो मोह क्षोभ से विरहित उर में अनंत सुख भरते ।।७।। ॐ ह्रीं श्री प्रभावनांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (वीर) प्रभु प्रभावना अंग पूजकर मेरा पवित्र हुआ । अंतरंग में जिनशासन का पूर्ण प्रभाव विचित्र हुआ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् गीत नृत्य वादित्र आदि से धर्म प्रभाव करूँ स्वामी। आत्मधर्म की प्रभावना ही परमोत्तम त्रिभुवन नामी ।।६।। जिनबिम्बों की करूँ प्रतिष्ठा सम्यकविधि से अभिरामी। जीर्णोद्धार तीर्थों का कर हर्षित होऊँ अन्तर्यामी ।।७।। तन मन धन से प्राणिमात्र की सेवा करके हर्षाऊँ। धर्म प्रभाव करूँ मैं विस्तृत परम सौख्यतरु उपजाऊँ।।८।। जिनशासन की प्रभावना में वृद्धि करूँ निज बल से नाथ। रत्नत्रय का तेज प्रकट कर जुर्दू धर्म उज्ज्वल से नाथ ।।९।। संसारी जीवों के उर में जो अज्ञान अँधेरा है। हे प्रभु उसको दूर करूँ मैं जागे सहज उजेरा है।।१०।। करके ऐसी प्रभावना निज जीवन सफल करूँ भगवन । संयमफल पाकर सिद्धों में वास करूँ हो आनंदघन ।।११।। रत्नत्रय का तेज प्रकटाकर यह संसारत्रास हर लूँ। ध्रुव परमात्म परमपद पाकर शाश्वत निज प्रकाश वर लूँ।।१२।। (दोहा) महाअर्घ्य अर्पण करूँ, जय प्रभावना अंग। सुदृढ़ करूँ उर मध्य मैं, वात्सल्य का अंग ।। ॐ ह्रीं श्री प्रभावनांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (मानव) अपने स्वरूप की पावन अनुपम प्रभावना कर लूँ । जिनधर्म प्रभाव हृदय धर सारे भवसंकट हर लूँ ।।१।। महिमा जिनधर्म प्रकाशुं निज निजानंद रस पाऊँ । ध्वज अनेकान्त सर्वोत्तम जगती में प्रभु फहराऊँ ।।२।। तन धन यौवन परिजन सब दो दिन के साथी नश्वर। दर्शन ज्ञान स्वरूपी चेतन सदा रहता अनश्वर ।।३।। तन राज्य भवन भू आदि कोई न साथ जाते हैं। केवल ये कर्मबंध ही सुख दुःखमय संग जाते हैं ।।४।। जो जैसे कत करता है वह वैसा ही फल पाता। शद्धभाव होता जब उर में तब सख अविनश्वर आता ।।५।। नाचा मेरा मन देखो नाचा मेरा मन । जिन दर्शन कर मैं तो हुआ धन ॥१॥ जिनवर का रूप देख मुग्ध हो गया। अपना स्वरूप देख बुद्ध हो गया ।।२।। नहीं कुछ भेद पाया दोनों ही चेतन । नाचा मेरा मन देखो नाचा मेरा मन ।।३।। जितने गुणों के धारी श्री जिनदेव । उतने गुणों का धारी मैं भी स्वयमेव ।।४।। मैं भी अरहंत सम आनंदघन । नाचा मेरा मन देखो नाचा मेरा मन ।।५।। निज परिणति नाची मेरी छम छम । समकित धारा मैंने लिया संयम ।।६।। भाव मोक्ष पाया मैंने अभी इसी क्षण। नाचा मेरा मन देखो नाचा मेरा मन ।।७।।

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