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रत्नत्रय विधान
श्री सम्यक्चारित्र अध्यावलि
पंचप्रकारचारित्र
(चौपई) पंचप्रकार शुद्धचारित्र। धारण करते सुमुनि पवित्र । बिन चारित्र असंभव मुक्ति । मुक्तिप्राप्ति की ये ही युक्ति ।। तर्जे असंयम हे भगवान । बनूं संयमासंयमवान ।
निज संयम धारूँ फिर देव । पाँचों संयम धरूँ स्वयमेव ।। ॐ ह्रीं श्री पंचप्रकारचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
१. सामायिक चारित्र
(वीर) सब सावद्ययोग तज दूं मैं भाव शुभाशुभ का कर दूँ त्याग। सामायिकचारित्र धार लूँ निज स्वरूप से कर अनुराग ।।१।। सर्वजीव हैं केवलज्ञानमयी भावना यही भाऊँ। समतारूपी परिणामों में रहूँ आत्मा ही ध्याऊँ।।२।। निर्विकार स्वसंवेदन बल से राग-द्वेष करके परिहार।
छठवें से नवमें तक होता निश्चयसामायिक अविकार ।।३।। ॐ ह्रीं श्री सामायिकचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
२. छेदोपस्थापना चारित्र सामायिक से हटकर यदि सावद्यरूप हो कुछ व्यापार। प्रायश्चित्त करके उत्पन्नित दोष सभी कर दूं परिहार ।।१।। छठवें से नवमें तक होता छेदोपस्थापना चारित्र ।
आत्मधर्म में सुस्थापित हो जाऊँ मैं भी पवित्र ।।२।। ॐ ह्रीं श्री छेदोपस्थापनाचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
३. परिहारविशुद्धि चारित्र जन्म समय से तीस वर्ष रह फिर जिनदीक्षा ग्रहण करें। तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष अध्ययन करें ।।१।। नववाँ प्रत्याख्यानपूर्व पढ़ने पर हो परिहारविशुद्धि । महावीर्यपति प्रमादविरहित सहित निर्जरा पाता शुद्धि ।।२।।
श्री सम्यक्चारित्र पूजन
कठिन आचरण करने वाले मुनियों को यह होता है। नहीं विराधना जीवों की हो ऐसा संयम होता है।।३।। तीर्थकर को यहाँ प्रकट होता है यह चारित्र । अति कम अवधिज्ञान के धारी जनम सबसे महापवित्र ।।४।। छठे गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक होता है।
सब जीवों की रक्षा होती यह तो निज में होता है।।५।। ॐ ह्रीं श्री परिहारविशुद्धिचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
४. सूक्ष्म सांपरायिक चारित्र जब यह सूक्ष्मलोभ उदय हो तब यह संभव होता है। सूक्ष्मसांपराय चारित्र जु दसवें तक ही होता है ।। जब कषाय का पूरा उपशम या क्षय हो तब होता है।
यह चारित्र शुद्ध संयमीमुनियों को ही होता है। ॐ ह्रीं श्री सूक्ष्मसापरायिकचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
५. यथाख्यात चारित्र मोहनीय के क्षय या उपशम से हो यथाख्यातचारित्र । शुद्धआत्मा के भीतर ही थिर होना है यह चारित्र ।। गुणस्थान ग्यारहवें से यह चौदहवें तक होता है। यह उपशान्तकषाय गुणस्थानी जीवों को होता है।। क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती को निर्मल होता है। यह संयोगकेवली अयोगकेवली जिन को होता है।। भरतक्षेत्र काल पंचम में केवल प्रथम दो ही चारित्र ।
यथाख्यातचारित्र प्राप्तकर हो जाऊँ मैं पूर्ण पवित्र ।। ॐ ह्रीं श्री यथाख्यातचारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
एक सौ पच्चीस भावनाएँ
(ताटंक) अहिंसादि पाँचोंव्रत की पच्चीसभावनाएँ भाऊँ। पंचपाप के पूर्ण त्याग की पाँचभावना उर लाऊँ।।१।। मैत्री आदिक चारभावना अरु प्रशमादि भावना चार। शल्यत्याग की तीन देह भवभोगत्याग की तीन विचार ।।२।।