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रत्नत्रय विधान
एषणासमिति पालूँ मैं सम्यक् हे अन्तर्यामी । टालूँ सब दोष छयालीस आहार हेतु हे स्वामी ।। ९ ।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ( शार्दूलविक्रीड़ित )
सम्यग्दर्शन शुद्ध प्राप्त करके जिन मुनि बनूँ हे प्रभो । पालूँ मैं एषणासमिति सम्यक् अनुभूति निज की करूँ ।। १ ।। मैं तो हे प्रभु शुद्ध ज्ञान भोजन पाऊँ स्वपर ज्ञानमय । पर का भी कल्याण करूँ स्वामी निग्रंथ होकर अभी ।। २ ।। ( वीर )
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सर्व एषणादोष त्यागकर ही लेते मुनिवर आहार । उद्देशिक' भोजन तज देते वापस जाते बिन आहार ।।३।। सोलह उद्गमदोष और उत्पादन के हैं सोलह दोष । अशनदोष दस भी तज देते तजते चार एषणादोष ||४|| ये सब दोष टालते मुनिवर तब लेते प्रासुक आहार । अंतराय हो जाता कोई तो तज देते हैं आहार ।।५।। दोष जानते हैं आहार ग्रहण को श्री मुनि हैं अविकार । निराहार पद पाने को उत्सुक रहते हैं वे हर बार ।। ६ ।। (दोहा)
महा अर्घ्य अर्पण करूँ, परम विनय से आज ।
दोष एषणा त्यागते, वीतराग मुनिराज ।।
ॐ ह्रीं श्री परम अहिंसामयीएषणासमितिधारकमुनिराजाय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
१. उदिष्ट
जयमाला
(मानव)
रजनी के अँधियारे को दिनकर उजियाला नाशे । चेतन जागृत हो जाए अपना स्वरूप जब भासे ॥ | १ || कर्मों की कड़ियाँ टूटें ध्वज समयसार फहराए। आनन्द अतीन्द्रिय धारा प्रतिफल प्रतिक्षण लहराए ॥ २ ॥
२. भोजन
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श्री एषणासमितिधारक मुनिराज पूजन
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परिणति निज पीछे दौड़े नित आँख-मिचौली खेले । तो यह चैतन्य स्वरूपी अपनी बाँहों में ले ले || ३ || भवसागर क्षय हो जाए जब समयसार निज ध्याए । अपने स्वभाव के बल से अपने में पूर्ण समाए ||४|| जितने भी सिद्ध हुए हैं या जो आगामी होंगे। अपने स्वभाव साधन का बल पाकर ही वे होंगे ॥५॥ संयमित जीव जो होते वे ही शिवसुख पाते हैं । अतिक्रमण किया करते जो वे ही भवदुःख पाते हैं ।। ६ ।।
अपराध नहीं होगा तो फिर प्रायश्चित्त क्यों होगा । अतिक्रमण नहीं होगा तो प्रतिक्रमण कहो क्यों होगा ।।७।। अविरति का दोष नहीं तो फिर प्रत्याख्यान करूँ क्यों ।
मैं स्वयं तीर्थपति जिनसम तो करूँ तीर्थयात्रा क्यों ||८|| परिपूर्ण ज्ञान का सागर तो फिर अज्ञान हरूँ क्यों । अतिसरण नहीं है तो फिर बोलो प्रतिसरण करूँ क्यों ।।९।। निन्दा गर्हा जो भी हो वह मुझमें नहीं मिलेगी । अविलंब चलूँ शिवपथ पर तो पंचम स्वगति मिलेगी । । १० । । मैं अमृतकुंड पूरा हूँ विषकुम्भ सँभाल धरूँ क्यों । मैं मुक्त स्वरूप सदा से भवमार विशाल हरूँ क्यों ।। ११ ।। ॐ ह्रीं श्रीपरम अहिंसामयीएषणासमितिधारकमुनिराजाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(वीर )
समिति एषणा पूजन करके परम तृप्त मैं हो जाऊँ । सम्यक्विध से बनूँ निराहारी मैं पूर्ण सौख्य पाऊँ ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगम्बरवेश ।। पुष्पांजलिं क्षिपेत्
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