Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 71
________________ १३८ रत्नत्रय विधान अंतिम महार्घ्य ( दोहा ) समयसार को नमन कर, स्वानुभूति उर लाय । चिर स्वभाव ही हे प्रभो, भवदुःख नाश कराय ।। पर भावों से पृथक् है, गुण अनंतमयरूप । अनेकान्त की मूर्ति ही सर्वश्रेष्ठ शिवरूप ॥ ( ताटंक ) रत्नत्रय के आराधक को नहीं जीविताशंसा है। रत्नत्रय के आराधक को अल्प न मरणाशंसा है ।। १ ।। रत्नत्रय के आराधक को कभी सुहृद अनुराग नहीं । रत्नत्रय के आराधक को बंधु मित्र का भाव नहीं ॥ २ ॥ रत्नत्रय के आराधक को होता रागवितान नहीं । रत्नत्रय के आराधक को होता है दुर्ध्यान नहीं ||३|| रत्नत्रय के आराधक की महिमा सबसे न्यारी है। उसको तो केवल रत्नत्रयभक्ति सदा ही प्यारी है ॥४॥ (दिग्वधू) जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में । कितने भव बीत चुके संकल्प - विकल्पों में ॥ १ ॥ उड़-उड़ कर यह चेतन गति-गति में जाता है। रागों में लिप्त सदा भव भव दुःख पाता है ||२॥ पल भर को भी न कभी निज आतम ध्याता है। निज तो न सुहाता है पर ही मन भाता है ॥३॥ यह जीवन बीत रहा झूठे संकल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में || ४ || निज आत्मस्वरूप तो लख तत्त्वों का कर निर्णय । मिथ्यात्व छूट जाए समकित प्रगटे निजमय ॥ ५॥ निज परिणति रमण करे हो निश्चय रत्नत्रय । निर्वाण मिले निश्चित छूटे यह भवदुःखमय ||६|| 70 अंतिम महार्घ्य सुख ज्ञान अनंत मिले चिन्मय की गल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में ॥ ७ ॥ शुभ-अशुभ विभाव तजे हैं हेय अरे आस्रव । संवर का साधन ले चेतन का कर अनुभव ||८|| शुद्धात्म का चिन्तन आनंद अतुल अनुभव । कर्मों की पगध्वनि का मिट जायेगा कलरव ।।९।। तू सिद्ध स्वयं होगा पुरुषार्थ स्वकल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में ।। १० ।। तू कौन कहाँ का है अरु क्या है नाँव अरे । आया है किस घर से जाना किस गाँव अरे ।। ११ ।। सोचा न कभी तूने होकर निज छाँव अरे । यह तन तो पुद्गल है दो दिन का ठाँव अरे । । १२ ।। तू चेतन द्रव्य सबल ले सुख अविकल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में ।। १३ ।। नर रे नर रे तू चेतन अरे नर रे । क्यों मूढ़ विमूढ़ बना कैसा पागल खर रे ।। १४ ।। अन्तर्मुख होजा तू निज का आश्रय कर रे । पर अवलंबन तज रे निज में निज रस भर रे ।। १५ ।। पर परिणति विमुख क्या हुआ तो सुख पल अल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में ।। १६ ।। यदि अवसर चूका तो भव भव पछताएगा। फिर काल अनंत अरे दुःख का घन छाएगा ।। १७ ।। यह नर भव कठिन महा किस गति में जाएगा। नर भव पाया भी तो जिनश्रुत ना पायेगा । । १८ ।। अनगिनती जन्मों में अनगिनती कल्पों में । जिया कब तक उलझेगा संसार विजल्पों में ।। १९ ।। १३९ (दोहा) महा अर्घ्य अर्पण करूँ, अपने हित के काज । रत्नत्रय की भक्ति से, पाऊँ निजपदराज ।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अंतिममहार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

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