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३०. श्री कायगुप्तिधारक मुनिराज पूजन
(गीतिका) कायगुप्ति महान धारूँ काय को वश में करूँ। दुर्निवार प्रसिद्ध तम हर शुद्ध निज अंतर करूँ ।। देवगति का मूल जिनश्रुत मुक्ति का कारण यही। राग-द्वेष विनाश हित चारित्र दाता है यही।। कायगुप्ति पवित्र की पूजन करूँ प्रभु भाव से।
काय के प्रति राग त्यागूं जुहू शुद्ध स्वभाव से ।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
(मानव) नहीं राग का कण कहीं दिख रहा है नभंतर स्वजल से भरा शद्ध पावन । चले हो स्वपथ पर स्वसंयम का बल ले तुम्हीं प्रभु हमारे तरण और तारण ।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।१।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
परम श्रेष्ठ वसु बीस हैं मूलगुण प्रभु, महाश्रेष्ठ पावन है चारित्र उत्तम । स्वचंदन की महिमा से शोभित हो स्वामी, महामोक्ष पाते बिना ही परिश्रम ।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।२।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। त्रयोदशप्रकारी स्वचारित्र धारा समिति गुप्तिव्रत पूर्ण अधिकार पाए। तो इन्द्रादि सुर भी सरस गीत गाते तुम्हें दिव्यअक्षत चढ़ाने को आए।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।३।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री कायगुप्तिधारक मुनिराज पूजन
१३५ स्वभावों की महिमा से भूषित हुए तुम स्वपुष्पों की माला से शोभित हुए प्रभु। महाशीलपद पाने के बाद स्वामी कभी लौटकर फिर नहीं आएंगे प्रभ।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।४।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। स्वअनुभव के चरु की पा महिमा अनूठी अनाहारी पद आप पाएंगे निश्चित । क्षुधाव्याधि हरकर शिवम् सुन्दरम् तक स्वसत्यम् के ही श्रम करेंगे प्रकाशित ।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।५।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वभावों के दीपक परम ज्योतिमय ही जगाते हैं अन्तर में दीपक प्रभामय। मिलेगा प्रभो ज्ञान कैवल्य निश्चित अनंतों गुणों से भरा निज विभालय ।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।६।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। स्वभावों की ही धूप लाएँगे उर में परम शुक्लध्यानी सकल कर्मनाशक । विकारी विभावों की होली जलेगी मिलेगा स्वतः ज्ञान निज परप्रकाशक।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआ शान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।७।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । स्वभावों के फल ही परम सौख्यदाता महामोक्षफल देने वाले हैं स्वामी। निजानंद रस सिन्धु प्रकटेगा उर में परम सिद्ध पददाता निर्मल अकामी ।। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआशान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।८।। ॐ ह्रीं श्री कायगुमिधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। स्वभावों के अर्घ्य अपूर्व बनाकर यथाख्यात पाने का बल पा लिया है। मिलेगी स्वपदवी अनर्घ्य निराली जिनागम ने ऐसा ही वर्णन किया है। सहज कायगुप्ति के स्वामी हो मुनिवर अचंचल स्वभावी हुए साधु पावन ।
असंयम को सम्पूर्ण निज से पृथक्कर हुआशान्त शीतल सहज ज्ञान उपवन ।।९।। ॐ ह्रीं श्री कायगुप्तिधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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