Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 38
________________ रत्नत्रय विधान शुक्लध्यान के चार भेद हैं उपशम क्षायिकश्रेणी युक्त। शुक्लध्यान बिन कोई प्राणी कभी नहीं होता है मुक्त।।९।। पहला पृथक्त्ववितर्क दूजा एकत्ववितर्क विचार । तीजा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती व्युपरतक्रियानिवृत्ति चार ।।१०।। अष्टमगुणस्थान से होता पहला शुक्लध्यान प्रारंभ। उपशम ग्यारहवें तक जाता आगे जाता क्षायिक रम्य ।।११।। क्षायिकचारित्र होने पर ही होता पूर्ण मोक्षसुख प्राप्त । सादिअनंतानंत काल तक निजानंद रस होता व्याप्त ।।१२।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । (वीर) प्रभु सम्यक्चारित्र सुपूजन करके उर में हर्ष हुआ। संयम के प्रति जगी रुचि उर इतना तो उत्कर्ष हुआ।। रत्नत्रयमण्डल विधान की पूजन का है यह उद्देश । निश्चय पूर्ण देशसंयम ले धारूँ दिव्य दिगंबरवेश ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् १५. श्री पंचमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन (चौपई वीर) पंचमहाव्रत की पूजनकर पंचमहाव्रत धारूँ देव । हिंसा झूठ कुशील परिग्रह चोरी पाप तनँ स्वयमेव ।। धर्म अहिंसा सत्य अचौर्य अरु ब्रह्मचर्य अपरिग्रह धार। ये ही पाँचों पूर्ण महाव्रत ले जाते भवसागर पार ।। पाँचों पापों से निवृत्ति ही व्रत कहलाता है उत्तम । एकदेशअणुव्रत संयम अरु सर्वदेश है सर्वोत्तम ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ हीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराज अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (चौपई वीर) जल एकत्वभाव उर लाय । जन्म-जरा-मृत्यु रोग नशाय । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार । महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।१।। ॐ ह्रीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। साम्यभाव चंदन उर लाय । भवज्वर पीड़ा त्वरित नशाय । परमगुरु हो जय जय नाथ परम शगुरु हो।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार । महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।२।। ॐ हीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। समभावी अक्षत गुण रूप। पाऊँ अक्षयपद चिद्रूप । परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।। भजन जिनवर की बात तू आगम से सुन । फिर धुन अपनी ध्रुवधाम धुन ।।१।। तुझमें अनंत गुण हैं ही विद्यमान । अवगुण छोड़ तू उनको ही गुन । जिनवर ..... ॥२॥ भवमार्ग तो हैं देख बहुत अनेक। तू तो मुक्तिमार्ग रत्नत्रय चुन । जिनवर ...... ॥३॥ कर्मों के सारे जाल अभी तोड़ दे। सिद्धपद के पट दिन-रात बुन ।।जिनवर ।।४।। शाश्वत पाएगा अनंत सौख्य तू।। तब ही सुनेगा शिवपुर रुनझुन ।।जिनवर ।।५।।

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