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रत्नत्रय विधान
पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।३।। ॐ ह्रीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। समभावी ध्रुवपुष्प महान । कामभाव करते अवसान ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार ।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। अनुभवरस निर्मित चरु श्रेष्ठ । हरते क्षुधामयी दुःख नेष्ठ ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार ।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।५।। ॐ हीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्ज्ञानदीप उर लाय। मोहतिमिर मिथ्यात्व नशाय।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार ।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।६।। ॐ हीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। शुक्लध्यानमय धूप महान । करती अष्टकर्म अवसान ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार ।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।७।। ॐ हीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । यथाख्यात तरुवर फल श्रेष्ठ । पूर्ण मोक्षफलदाता ज्येष्ठ ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।। पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार ।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।८।। ॐ ह्रीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। घाति-अघाति विनाशक अर्घ्य । तत्क्षण देते स्वपद अनर्घ्य ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।
श्री पंचमहाव्रतधारक मुनिराज पूजन पंचमहाव्रत भवदुःखहार। शिवसुखदाता अपरम्पार ।
महासुख हो पूजे नाथ महासुख हो ।।९।। ॐ हीं श्री पंचमहाव्रतधारकमुनिराजाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाग्रं
(विजात) विभावभावों से बच के रहना यही डुबाते हैं आत्मा को। विकार सारे हैं मूल दुःख के सदा भ्रमाते निजात्मा को॥१॥ जी ऊब जाता है पाप से तो ये जीव पुण्यों के भाव करता। स्वयंको विस्मृत सदा ही करतानमोह-मिथ्यात्व शल्य हरता।।२।। सातों रंगों में उत्तम ज्यों श्वेतरंग अतिउज्ज्वल । त्यों सप्ततत्त्व में उज्ज्वल शुद्धात्मतत्त्व है निर्मल ॥३॥ यह रंग अरूपी अनुपम ज्ञायकस्वभाव का पावन । जो मोक्षस्वरूप त्रिकाली ध्रुवधामी है मनभावन ।।४।। जो इसे निरखता रुचि से अमरत्व अमित पाता है। जो इसे परखता शिवमय सिद्धत्व वही लाता है।।५।। यह निज अनुभव से मिलता निरपेक्ष पूर्ण असहायी। यह सादि अनंतानंतों कालों तक धूवरस पायी ।।६।। इसको जो वंदन करता वह त्रिभुवनपति बन जाता। इन्द्रादिक सुरनर मुनियों का नमस्कार नित पाता ।।७।। ज्ञायकस्वभाव जब जगता मिथ्यात्व मोह भगता है। रागादिभाव भी इसको फिर कभी नहीं ठगता है ।।८।। आनन्दामृत की धारा बहती इसके अंतर में। यह निजानंद रसलीनी आनंदित स्वभ्यंतर में।।९।। यह ज्ञायक मैं ही तो हूँ टंकोत्कीर्ण ध्रुवचिन्मय। सौभाग्य जगा है मेरा पाया है इसका परिचय ।।१०।। अब द्वैत नहीं है कोई अद्वैत हो गया हूँ मैं। तज अप्रतिबुद्धदशा को प्रतिबुद्ध हो गया हूँ मैं।।११।। अब त्रिलोकान के ऊपर निश्चित निवास मेरा है। संयमरथ पर आरूढ़ित दशदिशि प्रकाश मेरा है।।१२।।