Book Title: Ratnatray mandal Vidhan
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 27
________________ ८. श्री वात्सल्य अंग पूजन ( दोहा ) वात्सल्य के अंग की, महिमा जग विख्यात । वात्सल्य का भाव ही, उर में हो दिन-रात ।। १ ।। गौ बछड़े सम प्रीति, हो साधर्मी से नाथ । कष्ट दूर उनका करूँ, तत्क्षण हाथों-हाथ ॥ २ ॥ वात्सल्य के अंग को, पूजूँ मन वच काय । सम्यग्दर्शन दृढ़ करूँ, जो है शिवसुखदाय ॥३ ॥ साधर्मी असहायजन, पर हो दृढ़ वात्सल्य । निज प्रभावना हेतु प्रभु, नाश करूँ सब शल्य ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य वात्सल्यांग अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य वात्सल्यांग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनस्य वात्सल्यांग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ( मानव ) जल ज्ञानगगन से लाऊँ चंद्रिका ज्ञान की पाऊँ । जन्मादिक रोग मिटाऊँ आस्रव सम्पूर्ण भगाऊँ ।। अपने स्वभाव के प्रति मैं वात्सल्य भाव उर लाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ।। १ ।। ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। मलयागिरि चंदन लाऊँ निज अनहद वाद्य बजाऊँ । संसारतापज्वर क्षयहित संवर को हृदय लगाऊँ ।। जिनधर्म प्रभाव हेतु मैं वात्सल्यभाव उर लाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । 26 श्री वात्सल्य अंग पूजन पाण्डुक वन अक्षत लाऊँ अक्षयपद निज प्रगटाऊँ । भवसागर पार हेतु मैं निर्जराभावना भाऊँ ॥ निजधर्म आयतन के हित वात्सल्यभाव उर लाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ||३|| ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । नन्दनवन कुसुम सुप्रासुक प्रभु के चरणाग्र चढ़ाऊँ । चिर कामरोग विनशाकर निष्काम स्वपद प्रगटाऊँ ।। साधर्मी वात्सल्य से मैं ओतप्रोत हो जाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । सौमनस स्वरस चरु लाऊँ चिर क्षुधारोग विनशाऊँ । अनुभवरस पीता जाऊँ ज्ञायक के गीत सुनाऊँ ।। सब जीवों के प्रति वत्सलता उर में सतत् जगाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ॥ ५॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । मैं भद्रशालवन जाऊँ दीपक स्वज्योति प्रकटाऊँ । मिथ्यात्वतिमिर भ्रम हरकर सम्यक्त्व ज्योति को पाऊँ ।। त्रिभुवन के जीव सुखी हों मैं यही भावना भाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । गिरि मेरुसुदर्शन जाकर निज ध्यानधूप उर लाऊँ । कर्मों की ज्वाल बुझाऊँ चिन्मयचिन्तामणि पाऊँ ।। तुम सम पारस बन जाऊँ सबको ही स्वर्ण बनाऊँ 1 वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ।।७।। ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । गिरि विजय अचल पर जाऊँ फल परम रसमयी लाऊँ । फल महामोक्ष प्रगटाऊँ निज मुक्तिवधू सुख पाऊँ ।। सबके ही दुख निर्वारुँ परिपूर्ण सौख्यतरू लाऊँ । वात्सल्य अंग के बल से जय अवात्सल्य पर पाऊँ ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यांगाय महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । ५१

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